वे ऊँचे-ऊँचे खूबसूरत “हाइवे” जिन पर चलती हैं कारें– तेज रफ़्तार से,कतारबद्ध, चलती कार में चाय पीते-पीते, टेलीफ़ोन करते, ‘टू -डॊर’ कारों में,रोमांस करते-करते, अमरीका धीरे-धीरे सांसों में उतरने लगता है। मूँगफ़ली और पिस्ते का एक भाव पेट्रोल और शराब पानी के भाव, इतना सस्ता लगता है सब्जियों से ज्यादा मांस कि ईमान डोलने लगता… Continue reading अमरीका हड्डियों में जम जाता है / अंजना संधीर
Author: poets
खयाल उसका हरएक लम्हा मन में रहता है / अंजना संधीर
ख़याल उसका हर एक लम्हा मन में रहता है वो शमअ बनके मेरी अंजुमन में रहता है। कभी दिमाग में रहता है ख़्वाब की मानिंद कभी वो चाँद की सूरत , गगन में रहता है। वो बह रहा है मेरे जिस्म में लहू बनकर वो आग बनके मेरे तन-बदन में रहता है। मैं तेरे पास… Continue reading खयाल उसका हरएक लम्हा मन में रहता है / अंजना संधीर
हम से जाओ न बचाकर आँखें / अंजना संधीर
हम से जाओ न बचाकर आँखें यूँ गिराओ न उठाकर आँखें ख़ामोशी दूर तलक फैली है बोलिए कुछ तो उठाकर आँखें अब हमें कोई तमन्ना ही नहीं चैन से हैं उन्हें पाकर आँखें मुझको जीने का सलीका आया ज़िन्दगी ! तुझसे मिलाकर आँखें।
किताबे-शौक में क्या क्या निशानियाँ रख दीं / अंजना संधीर
किताबे-शौक़ में क्या-क्या निशानियाँ रख दीं कहीं पे फूल, कहीं हमने तितलियाँ रख दीं। कभी मिलेंगी जो तनहाइयाँ तो पढ़ लेंगे छुपाके हमने कुछ ऐसी कहानियाँ रख दीं। यही कि हाथ हमारे भी हो गए ज़ख़्मी गुलों के शौक में काँटों पे उंगलियाँ रख दीं। बताओ मरियम औ’ सीता की बेटियों की कसम ये किसने… Continue reading किताबे-शौक में क्या क्या निशानियाँ रख दीं / अंजना संधीर
स्वाभिमानिनी / अंजना संधीर
स्वाभिमानिनी उसने कहा द्रौपदी शरीर से स्त्री लेकिन मन से पुरूष है इसीलिए पाँच-पाँच पुरुषों के साथ निष्ठापूर्ण निर्वाह किया। नरसंहार में भी विचलित नहीं हुई ख़ून से सींचकर अपने बाल तृप्ति पाई फ़िर भूल गई इस राक्षसी अत्याचार को भी क्या सचमुच? मन से पुरुष स्त्रियों का यही हाल होता है हर जगह अपमानित… Continue reading स्वाभिमानिनी / अंजना संधीर
संवाद चलना चाहिए / अंजना संधीर
“तुम एक ग्लोबल पर्सन हो वापस जा कर बस गई हो पूर्वी देश भारत में फ़िर से लेकिन तुम्हारी विचार धारा अब भी यहाँ बसी है , ऐसे नहीं छोड सकतीं तुम हमें… बहुत याद आती है तुम्हारी…” ढलती हुई शाम के देश से उगते हुए सूरज के देश में , सुबह- सवेरे सात समुन्दरों… Continue reading संवाद चलना चाहिए / अंजना संधीर
वे चाहती हैं लौटना / अंजना संधीर
ये गयाना की साँवली-सलोनी , काले-लम्बे बालों वाली तीखे-तीखे नैन-नक्श, काली-काली आँखों वाली भरी-भरी , गदराई लड़कियाँ अपने पूर्वजों के घर, भारत वापस जाना चाहती हैं। इतने कष्टों के बावजूद, भूली नहीं हैं अपने संस्कार। सुनती हैं हिन्दी फ़िल्मी गाने देखती हैं , हिन्दी फ़िल्में अंग्रेजी सबटाइटिल्स के साथ जाती हैं मन्दिरों में बुलाती हैं… Continue reading वे चाहती हैं लौटना / अंजना संधीर
प्रेम में अंधी लड़की / अंजना संधीर
टैगोर की कविता दे कर उसने चिन्हित किया था शब्दों को कि वो उस रानी का माली बनना चाहता है सख़्त लड़की ने पढ़ा सोचा कि मेरे बाग का माली बनकर वो मेरे लिए क्या-क्या करेगा… खो गई सपनों में लड़की कविता पढ़ते-पढ़ते कि ठाकुर ने कितने रंग बिछाए हैं जीवन में तरंगों के लिए… Continue reading प्रेम में अंधी लड़की / अंजना संधीर
रुको बाबा / अंजना भट्ट
जख़्म अभी हरे हैं अम्मा मत कुरेदो इन्हें पक जाने दो लल्ली के बापू की कच्ची दारू जैसे पक जाया करती है भट्टी में। दाग़ अभी गहरे हैं बाबा मत कुरेदो इन्हें सूख जाने दो रामकली के जूड़े में लगे फूल की तरह। जख़्म अभी गहरे हैं बाबा छिपकली की कटी पूंछ की तरह हो… Continue reading रुको बाबा / अंजना भट्ट
इच्छाओं का घर / अंजना भट्ट
इच्छाओं का घर— कहाँ है? क्या है मेरा मन या मस्तिष्क या फिर मेरी सुप्त चेतना? इच्छाएं हैं भरपूर, जोरदार और कुछ मजबूर. पर किसने दी हैं ये इच्छाएं? क्या पिछले जनमों से चल कर आयीं या शायद फिर प्रभु ने ही हैं मन में समाईं? पर क्यों हैं और क्या हैं ये इच्छाएं? क्या… Continue reading इच्छाओं का घर / अंजना भट्ट