हम कदम ढूँढे कहीं / ओम धीरज

उम्र अब अपना असर
करने लगी,
अब चलो,
कुछ हम कदम ढूढ़ें कहीं

साथ दे जो
लड़खड़ाते पाँव को,
अर्थ दे जो
डगमगाते भाव को,
हैं कहाँ ऊँचा
कहाँ नीचा यहाँ,
जो ठिठक कर
पढ़ सके हर ठाँव को,
जब थकें तो साथ दे
कुछ बैठकर,
अब चलो,
यूं हम सफर ढूढ़ें कहीं

जब कभी पीछे
मुड़ें तो देख ले,
दर्द घुटने की
हथेली सेक ले,
जब कभी भटके
अंधेरों की गली,
हाथ पकड़े
और राहें रोक लें
दृष्टि धुँधली
हो तो खोले, याद की
खिड़कियाँ
जो हर तरफ, ढूँढे कहीं।

स्वार्थ की जो गाँठ
दुबली हो गयी,
मन्द पड़ती
थाप ढपली हो गयी,
माँज लें, उसको
अंगुलियाँ थाम कर,
नेह की
जो डोर पतली हो गयी,
पोपले मुंह
तोतलों की बतकही
सुन सके, जो व्यक्ति
वह ढूढे कहीं।

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