सूनी-सूनी साँस की सितार पर / गोपालदास “नीरज”

सूनी-सूनी साँस की सितार पर
गीले-गीले आँसुओं के तार पर

एक गीत सुन रही है ज़िन्दगी
एक गीत गा रही है ज़िन्दगी।

चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा
झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा
जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही
इसलिए मिलन-विरह-विहान में

इक दिया जला रही है ज़िन्दगी
इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।

रोज फ़ूल कर रहा है धूल के लिए श्रंगार
और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार
इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को

एक क्षण हँसा रही है ज़िन्दगी
एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।

एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे
एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे
एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे
इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर

एक घर बसा रही है ज़िन्दगी
एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।

सो रहा है आसमान, रात हो रही खड़ी
जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिता की धूप-छाँह में

एक पल सुला रही है ज़िन्दगी
एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।

जा रही बहार, आ रही खिजां लिए हुए
जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए
रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी
राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए
इसलिए मज़ार की पुकार पर

एक बार आ रही है ज़िन्दगी
एक बार जा रही है ज़िन्दगी।

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