सुलझन की उलझन है / माखनलाल चतुर्वेदी

सुलझन की उलझन है,
कैसी दीवानी, दीवानी!
पुतली पर चढ़कर गिरता
गिर कर चढ़ता है पानी!

क्या ही तल के पागलपन का
मल धोने आई हैं?
प्रलयंकर शंकर की गंगा
जल होने आई हैं?

बूँदे , बरछी की नौकों-सी
मुझसे खेल रही है!
पलकों पर कितना प्राणों–
का ज्वार ढकेल रही है!

अब क्या रुम-झुम से छुमकेगा-
आँगन ग्वालिनियों का?
बन्दी गृह दे वैभव पर
आँखें डालेंगी डाका?

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