सुनाई पड़ते हैं / भवानीप्रसाद मिश्र

सुनाई पड़ते हैं
सुनाई पड़ते हैं कभी कभी
उनके स्वर
जो नहीं रहे

दादाजी और बाई
और गिरिजा और सरस
और नीता
और प्रायः
सुनता हूँ जो स्वर
वे शिकायात के होते हैं

की बेटा
या भैया
या मन्ना

ऐसी-कुछ उम्मीद
की थी तुमसे
चुपचाप सुनता हूँ
और ग़लतियाँ याद आती हैं
दादाजी को

अपने पास
नहीं रख पाया
उनके बुढ़ापे में

निश्चय ही कर लेता
तो ऐसा असंभव था क्या
रखना उन्हें दिल्ली में

पास नहीं था बाई के
उनके अंतिम घड़ी में
हो नहीं सकता था क्या

जेल भी चला गया था
उनसे पूछे बिना
गिरिजा!

और सरस
और नीता तो
बहुत कुछ कहते हैं

जब कभी
सुनाई पड़ जाती है
इनमें से किसी की आवाज़
बहुत दिनों के लिए
बेकाम हो जाता हूँ
एक और आवाज़

सुनाई पड़ती है
जीजाजी की
वे शिकायत नहीं करते

हंसी सुनता हूँ उनकी
मगर हंसी में
शिकायत का स्वर
नहीं होता ऐसा नहीं है
मैं विरोध करता हूँ इस रुख़ का
प्यार क्यों नहीं देते

चले जाकर अब दादाजी
या बाई गिरिजा या सरस
नीता और जीजाजी

जैसा दिया करते थे तब
जब मुझे उसकी
उतनी ज़रुरत नहीं थी.

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