शारद तरंगिणी / रामनरेश त्रिपाठी

(१)
अशनि-पात, भयानक गर्जना,
विषम वात, झड़ी दिन रात की।
मिट गई, दिन पावस के गए
शरद है अब शांत सुहावना।
(२)
अनिल-सेवन को दिन एक मैं
नगर से तटिनी-तट को चला।
सरस रागमयी खग-वृंद की
सुखद शीतल सुंदर साँझ थी।
(३)
गगन-मंडल निर्मल नील था
त्रिविध वायु-प्रवाह मनोज्ञ था।
मृदुल थी सरिता कलनादिनी
मुदित मैं मन में अति ही हुआ।
(४)
रजत के कण-सी रज-राशि में
रुक गया थल चौरस देख के।
अति मनोरम दृश्य पयोधि में
दृग लगे अनियंत्रित तैरने।
(५)
अधिक दुर्बल देख प्रवाह को
रुक यकायक दृष्टि गई वहाँ।
सहित विस्मय मैं कहने लगा
अयि तरंगिणि! है यह क्या दशा।
(६)
तरल तुंग तरंग उछालती
पुलिन के तरु-राशि उखाड़ती।
उलटती तरणी, तट तोड़ती
सभय नाविक को करती हुई।
(७)
अमित वेगवती अति गर्विता
गरजती तुम थी बरसात में।
अब कहो वह गर्व कहाँ गया?
अतुल यौवन का मद क्या हुआ?
(८)
सलिल से उठ एक तरंग ने
तुरत उत्तर यों मुझको दिया–
विभव अस्थिर है इस लोक में
रह नहीं सकती गति एक-सी।

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