शायद अभी है राख में कोई शरार भी / ‘अदा’ ज़ाफ़री

शायद अभी है राख में कोई शरार भी
क्यों वर्ना इन्तज़ार भी है इज़्तिरार भी

ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का
मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी

अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो
हद्द-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी

हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो
जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी

इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद
आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *