शम्मअ़-ए-अन्जुमन / क़तील

मैं ज़िन्दगी की हर-इक साँस को टटोल चुकी
मैं लाख बार मुहब्बत के भेद खोल चुकी
मैं अपने आपको तनहाइयों में तोल चुकी
मैं जल्वतों में सितारों के बोल बोल चुकी
-मगर कोई भी न माना

वफा़ के दाम बिछाए गए क़रीने से
मगर किसी ने भी रोका न मुझको जीने से
किसी ने जाम चुराए हैं मेरे सीने से
किसी ने इत्र निचोड़ा मेरे पसीने से
-किसी को ग़ैर न जाना

मेरी नज़र की गिरह खुल गई तो कुछ भी न था
जो बाज़ुओं में कहीं तुल गई तो कुछ भी न था
मेरे लबों से शफ़फ़ धुल गई तो कुछ भी न था
जवाँ रही, सो रही, घुल गई तो कुछ भी न था।
-कि लुट चुका था ख़ज़ाना

रही न साँस में ख़ुशबू तो भाग फूट गए
गया शबाब तो अपने पराए छूट गए
कोई तो छोड़ गए कोई मुझको लूट गए
महल गिरे सो गिरे, झोंपडे भी टूट गए
-रहा न कोई ठिकाना

 

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