वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा / ‘गुलनार’ आफ़रीन

वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
हाथ में वो हाथ ले कर उम्र भर चलता रहा

एक आँसू याद का टपका तो दरिया बन गया
ज़िंदगीं भर मुझ में एक तूफ़ान सा पलता रहा

जानती हूँ अब उसे मैं पा नहीं सकती मगर
हर जगर साए की सूरत साथ क्यूँ चलता रहा

जो मेरी नज़रों से ओझल हो चुका मुद्दत हुई
वो ख़यालों में बसा और शेर में ढलता रहा

रंज था ‘गुलनार’ मुझ को उस को भी अफ़सोस था
देर तक रोता रहा और हाथ भी मलता रहा

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