वसुधा के अंचल पर / जयशंकर प्रसाद

वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन- कन सा गया बिखर ?
जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा ,
जैसे सरसिज डाल पर .
लालसा निराशा में ढलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह या है रे मानव जीवन?
कितना है रहा निखर.
मिलने चलते अब दो कन,
आकर्षण – मय चुम्बन बन,
दल के नस-नस में बह जाती-
लघु-लघु धारा सुंदर.
हिलता-डुलता चन्चल दल,
ये सब कितने हैं रहे मचल?
कन-कन अनन्त अंबुधि बनते!
कब रूकती लीला निष्ठुर!
तब क्यों रे यह सब क्यों ?
यह रोष भरी लाली क्यों ?
गिरने दे नयनों से उज्जवल
आँसू के कन मनहर-
वसुधा के अंचल पर !

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