वसन्त-श्री / सुमित्रानंदन पंत

उस फैली हरियाली में,
कौन अकेली खेल रही मा!
वह अपनी वय-बाली में?
सजा हृदय की थाली में–

क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,
मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,
स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
ऊषा की मृदु-लाली में–
किसका पूजन करती पल पल
बाल-चपलता से अपनी?
मृदु-कोमलता से वह अपनी,
सहज-सरलता से अपनी?
मधुऋतु की तरु-डाली में–

रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,
भर कर मुकुलित अंगों में
मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?
खिल खिल बाल-उमंगों में,
हिल मिल हृदय-तरंगों में!

रचनाकाल: मार्च १९१८

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