वतन / अग्निशेखर

तुम आते हो यहाँ
दूर-दराज़ शहरों में, ओ वतन !
और कौंध जाते हो हर रात
लाखों जनों के अलग-अलग सपनों में एक साथ
कोई कश्मीरी नहीं जो पहले नींद से उठकर
सुनाता नहीं अपने अनुभव

तुम ही लू लगने से
हमारे गिर पड़ने में गिरते हो राह चलते अचानक
साँपों के काटे
तुम ही मरे हो हमारे मरने में
और तुम ही ने पोंछे हैं हमारे आँसू भी
यह तुम ही हो
जो फटी हुई पुस्तकों
और टूटी हुई पेन्सिलों की तरह पड़े हो
हमारे बच्चों के मैले बस्तों में खूँटी पर

यार, तुम भी क्यों मारे-मारे फिर रहे हो
हमारे साथ

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