रेत के समन्‍दर में सैलाब / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

रेत के समन्‍दर में सैलाब आया है
न जाने आज ये कैसा ख़्वाब आया है

दूर तक साँय-साँय-सी बजती थी शहनाई जहाँ
वहीं लहरों ने मल्‍हार आज गाया है ।

अजनबी खुद परछाई से भी डरता था जहॉं
वहीं आइना खुद-ब-खुद उग आया है ।

अनगढ़ा झोंपड़ा मेरे सपनों का महल होता था
मेरे बच्‍चों को फिर वो ही ख़्वाब भाया है ।

करेगा कौन प‍रवरिश मेरी विरासत की
यही सोच के हर बार दु:ख में गीत गाया है ।

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