मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे / साहिर लुधियानवी

मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ
आज दुकान पे नीलाम उठेगा उन का
तूने जिन गीतों पे रक्खी थी मुहब्बत की असास
आज चाँदी की तराज़ू में तुलेगी हर चीज़
मेरे अफ़कार मेरी शायरी मेरा एहसास
[असास=नींव; अफ़कार=लेख]
जो तेरी ज़ात से मनसूब थे उन गीतों को
मुफ़्लिसी जिन्स बनाने पे उतर आई है
भूक तेरे रुख़-ए-रन्गीं के फ़सानों के इवज़
चंद आशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है
[मनसूब= जुडे हुए; मुफ़्लिसी= गरीबी]
[जिन्स= वस्तु; इवज़= बदले में]
देख इस अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया में
मेरे नग़्में भी मेरे पास नहीं रह सकते
तेरे ज़लवे किसी ज़रदार की मीरास सही
तेरे ख़ाके भी मेरे पास नहीं रह सकते
[अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया= पैसे और मजदूरी की लडाई में]
[ज़रदार=अमीर; मीरास=जायदाद; ख़ाके= रूप]
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ
मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *