मामी निशा / रामनरेश त्रिपाठी

चंदा मामा गए कचहरी, घर में रहा न कोई,
मामी निशा अकेली घर में कब तक रहती सोई!

चली घूमने साथ न लेकर कोई सखी-सहेली,
देखी उसने सजी-सजाई सुंदर एक हवेली!

आगे सुंदर, पीछे सुंदर, सुंदर दाएँ-बाएँ,
नीचे सुंदर, ऊपर सुंदर, सुंदर सभी दिशाएँ!

देख हवेली की सुंदरता फूली नहीं समाई,
आओ नाचें उसके जी में यह तरंग उठ आई!

पहले वह सागर पर नाची, फिर नाची जंगल में,
नदियों पर नालों पर नाची, पेड़ों के झुरमुट में!

फिर पहाड़ पर चढ़ चुपके से वह चोटी पर नाची,
चोटी से उस बड़े महल की छत पर जाकर नाची!

वह थी ऐसी मस्त हो रही आगे क्या गति होती,
टूट न जाता हार कहीं जो बिखर न जाते मोती!

टूट गया नौलखा हार जब, मामी रानी रोती,
वहीं खड़ी रह गई छोड़कर यों ही बिखरे मोती!

पाकर हाल दूसरे ही दिन चंदा मामा आए,
कुछ शरमा कर खड़ी हो गई मामी मुँह लटकाए!

चंदा मामा बहुत भले हैं, बोले-‘क्यों है रोती’,
दीवा लेकर घर से निकले चले बीनने मोती!

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