पाँच सूचनाएँ / रामनरेश त्रिपाठी

(१)
संदेहों में ग्रस्त प्रेम-सा
अस्त हुआ दिनकर था।
विरहोन्माद समान चंद्र का
उदय बड़ा सुखकर था॥
एक वृहत संगीत-महोत्सव
अभी समाप्त हुआ था।
मन को मोद और रसना को
कलरव प्राप्त हुआ था॥
(२)
साबुन और तेल से धोए
लिपे-पुते चमकीले।
मोंछों को अनेक कट-छँट से
चित्रित परम सजीले॥
मुख-मंडल रूपी परदों में
भिन्न-भिन्न आकृति के।
कितने ही सुर असुर छिपे
बैठे थे भिन्न प्रकृति के॥
(३)
आँखों की खिड़कियाँ खोल—
कर दृश्य निहार रहे थे।
बातों की सुंदर रचना से
सुख विस्तार रहे थे॥
प्रेम-पूर्ण नेत्रों से सब की
ओर देख सुख पाके।
मन ही मन सुखदास मुदित था
अपना विभव दिखाके॥
(४)
सोने चाँदी के पात्रों में
व्यंजन विविध रसीले।
सज्जित देख मुदित, उत्सुक
आतुर थे मित्र रँगीले॥
इतने ही में एक अपरिचित
व्यक्ति दिव्य तन-धारी।
हुआ उपस्थित, देख चकित
हो गई मंडली सारी॥
(५)
अभिमानी सुखदास क्रुद्ध
हो बोला ऊँचे स्वर में।
“बिना बुलाए, बिना सूचना,
दिए किसी के घर में॥
यों घुस आना असभ्यता है
ओ मनुष्य अज्ञानी”।
वह बोला चुप रहो, शांत
हो ऐ मनुष्य अभिमानी!
(६)
“मेरा नाम काल है, मैं
हूँ आया पास तुम्हारे।
तुमने अपनी करनी से
है मुझे बुलाया प्यारे॥
अति अभिमानी धन यौवन
का मित्र! तुम्हारा मन है।
विषय-वासना-लिप्त कलंकित
पाप-पूर्ण जीवन है॥
(७)
‘संयम-हीन शरीर रोग
का भवन सदा अपकारी।
मुझे बुलाने को हे भाई
यही पुकार तुम्हारी॥
अस्त्र-शस्त्र-सज्जित सेना से
रक्षित राजमहल में।
तोपों से नित सावधान अति
दुर्गम सैनिक-दल में॥
(८)
“सागर की छाती पर, गिरि
पर, सूने में, हलचल में।
सिंहों के घर में, कुंजों में,
मरु-स्थलों में, जल में॥
रोक-टोक आने-जाने की
मुझको कहीं नहीं है।
आवश्यकता मुझे सूचना
देने की न कहीं है”॥
(९)
“ऐ सुखदास, सुनो, मैं जाता
हूँ जिस दिन उपवन में।
मच जाती है एक भयानक
हलचल जड़ चेतन में॥
गिरा-गिराकर फूल नाम के
आँसू तरु रोते हैं।
नोंच नोंचकर पक्षी अपने
पर व्याकुल होते हैं”॥
(१०)
“धन यौवन के मद में तुमको
मेरा तनिक न डर है।
चलो देर मत करो ठहरने
का न मुझे अवसर है”॥
सहम गया सुखदास काल
की सुनकर निर्भय वाणी।
होते हैं डरपोक प्रकृति के
प्रायः विषयी प्राणी॥
(११)
वह था जेंटिलमैन
सँभलकर, शीघ्रहोश में जागा।
सोचा—बातों में न फँसेगा
क्या यह काल अभागा॥
बोला—“सच है काल,
मिली है तुमको शक्ति निराली।
निमिषमात्र में कर सकते हो
तुम इस तन को खाली॥
(१२)
“पर तुम एक बार क्षण भर भी
सोचो अपने मन में।
अभी कौन-सा सुख भोगा है,
मैंने इस जीवन में॥
धन यौवन से सुख पाने का,
अभी समय है आया।
मित्रों से आनंद-प्राप्ति का,
अब अवसर है पाया॥
(१३)
“मैंने नया विवाह किया है,
आज वही उत्सव है।
गृह-सुख बाल-विनोद आदि
का कहाँ हुआ अनुभव है?
फिर भी मुझको ले जाने को
तुम इतने आतुर हो।
काल! सच कहो, तुम क्यों
इतने बज्र-हृदय निष्ठुर हो॥
(१४)
“तुमने कभी खिले फूलों को
देखा है उपवन में?
तो भी क्या कुछ कोमलता
उपजी न तुम्हारे मन में?
मुझे छोड़ दो, दान, पुण्य, व्रत,
धर्म, कर्म, कुछ कर लूँ।
जम में आया हूँ तो जग के
सुख से भी मन भर लूँ॥
(१५)
“धर्म पुण्य का मैंने अब तक,
कुछ न प्रयत्न किया है।
विषय-वासना ही को धन,
यौवन सब सौंप दिया है॥
घर वालों का, उद्यम का,
परलोक प्राप्त करने का।
कुछ प्रबंध कर लेने दो
तब भय न रहे मरने का॥”
(१६)
सुनकर कहा काल ने, “अच्छा
ऐ सुखदास! तुम्हारी।
विनय मान लेता हूँ मैं
तुम बनो पुण्य-अधिकारी॥
एक नहीं, मैं पाँच
सूचनाएँ देकर आऊँगा।
आशा है, तैयार उस समय
मैं तुमको पाऊँगा॥
(१७)
“अब तो तुम पाषाण-हृदय
निर्दयी न मुझे कहोगे?
जाता हूँ, आशा है अंतिम
दिन तैयार रहोगे”।
काल गया, सुखदास लौटकर
मित्र-वर्ग में आया।
प्रमुदित हुआ कि आज
काल को कैसा मूढ़ बनाया॥
(१८)
क्षणभर में क्षणभर पहले
की सारी बात बिसारी।
फिर आमोद-प्रमोद परस्पर
हुए पूर्ववत जारी॥
निर्भय हो सुखदास समय
विषयों में लगा बिताने।
राग-द्वेष-वश उसने कुत्सित
कर्म किए मनमाने॥
(१९)
जगदीश्वर ने दिए कई
अवसर उसके जीवन में।
पर कुछ भी चेतना न उपजी
उस लंपट के मन में॥
कई दिनों से भूख प्यास
से विकल एक घरवाले।
बैठे थे असहाय दशा में
कोई पुण्य कमा ले॥
(२०)
जगदीश्वर थे बाट जोहते
पर सुखदास न आया।
मछली के शिकार में उस दिन
वह था बहुत लुभाया॥
निस्सहाय धनहीन दुखों से
जर्जर एक निबल की।
मार्ग-पतित असमर्थ व्याधि से
पीड़ित एक विकल की॥
(२१)
ईश्वर न आहें लाकर
उसके कानों में डाली।
सुख में विघ्न समझकर
उसने और शराब चढ़ा ली॥
गरीबिनी थी एक साथ
थे बच्चे कई अभागे।
हरि ने लाकर खड़े किए
सुखदास मूढ़ के आगे॥
(२२)
दुखिया के आँसू बनकर
हरि ने निज रूप दिखाया।
पर सुखदास देखकर उसको
नौकर पर झुँझलाया॥
नौकर को भी उस दुखिया
के साथ तुरंत निकाला।
क्यों उसने यह दृश्य दिखाकर
था मधु में विष डाला॥
(२३)
क्लब में जाकर विविध विषय
पर वह घंटों बकता था।
परनिंदा करने में तो वह
कभी नहीं थकता था॥
हरि अवसर देते थे उसको
सदुपदेश करने का।
वह कहता था, भला मुझे
अवकाश कहाँ मरने का॥
(२४)
इस प्रकार निश्चिंत मूढ़-सा
उसने समय बिताया।
राग-रंग में उसे काल का
ध्यान भी नहीं आया॥
अंग शिथिल हो गए, कामना
गई न उसके मन से।
भला किसी का हो न सका
उसके समस्त जीवन से॥
(२५)
एक दिवस बैठा था सुख से
वह प्रमोद-कानन में।
आ पहुँचा फिर काल वहीं
तत्काल निकुंज-भवन में॥
अहो! मित्र सुखदास!
समय तो भलीभाँति से बीते।
इस संसार-परीक्षास्थल में
तुम हारे या जीते?
(२६)
अहो! क्या हुए सिर के
सुंदर काले बाल तुम्हारे?
जी हाँ, चालिस वर्ष हुए
ये श्वेत हो गए सारे॥
मित्र! एक भी दाँत नहीं
मुँह में अब तो दिखता है?
जी हाँ, बीस पचीस वर्ष से
इनका नहीं पता है॥
(२७)
टाँगों में क्या हुआ? कमर
क्यों तन न सँभाल रही है?
जी हाँ, पंद्रह वर्ष हुए
इनमें भी शक्ति नहीं है॥
सुनते हो कम, मुझे जान
पड़ता है बहुत दिनों से?
जी हाँ, कुछ उँचा सुनता हूँ
दस बारह वर्षों से॥
(२८)
आँखों में भी तेज नहीं है
धुँधलापन है छाया?
जी हाँ, पाँच बरस से,
यह सब ईश्वर की है माया॥
अच्छा, हो तैयार, तुम्हें ले
चलने को हूँ आया।
सुनते ही सुखदास चकित
पीड़ित-सा हो घबराया॥
(२९)
कहने लगा—हाय! मैंने तो
कुछ भी की न तयारी।
बातों ही बातों में मैंने
उम्र बिता दी सारी॥
समय-चातुरी से धीरज धर
फिर उसने की आशा।
बातों से ही पिंड छुड़ाने
की उपजी अभिलाषा॥
(३०)
कहा—महाशय काल! निठुर
तुम हो, यह विश्व-विदित है।
पर झुठे भी हो, इस गुण से
जगत नहीं परिचित है॥
पाँच सूचनाएँ देकर तब
तुम्हें चाहिए आना।
एक सूचना भी न मिली,
तुम आ पहुँचे मनमाना॥
(३१)
सुनकर युक्ति काल के मुख पर
कुछ मुसकाहट आई।
बोला—ऐ सुखदास!
सूचना पाँचो तुमने पाई॥
है पहली सूचना सफेदी
बालों पर फिर जाना।
तथा दूसरी दाँतों का है
टूट टूट गिर जाना॥
(३२)
और तीसरी टाँग और
कटि का निर्बल हो जाना।
चौथी है सूचना कान का
निर्गुण हो सो जाना॥
और पाँचवी है आँखों में
धुँधलापन छा जाना।
तुमने इन पाँचों का मिलना
स्वयं अभी है माना॥
(३३)
उठो, उठो, अब मैं न
सुनूँगा कोई नया बहाना।
समय हाथ से निकल गया
अब निष्फल है पछताना॥
व्यथित हुआ सुखदार कर
सका कुछ न प्रबंध किसी का।
साथ रहे अरमान लगा
जब धक्का काल बली का॥
(३४)
काल पकड़ ले गया,
गया सुखदास बहुत पछताता।
किंतु गया वह एक सुखद
उपदेश हमें बतलाता॥
रात बीत जाती है केवल
निद्रा और व्यसन में।
दिन परनिंदा, राग-द्वेष,
अभिमान, उदर-पालन में॥
(३५)
सोचो मित्र! आत्म-चिंतन का
समय कहाँ रह जाता।
हीरा-सा जीवन है यह
कौड़ी के बदले जाता॥
काल सदा है सावधान,
हम गाफ़िल क्यों सोते हैं।
क्यों न उच्च जीवन धारण कर
कालजयी होते हैं॥

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