पयामे-सुलह / त्रिलोकचन्‍द महरूम

लाई पैग़ाम मौजे-बादे-बहार
कि हुई ख़त्‍म शोरिशे – कश्‍मीर
दिल हुए शाद अम्‍न केशों के
है यह गांधी के ख़्वाब की ताबीर
सुलहजोई में अम्‍नकोशी में
काश होती न इस क़दर ताख़ीर
ताकि होता न इस इस क़दर नुक़्साँ
और होती न दहर में तश्‍हीर
बच गये होते नौजवां कितने
जिनको मरवा दिया बसर्फे-कसीर
ज़िक्र क्‍या उसका, जो हुआ सो हुआ
उन बेचारों की थी यही तक़दीर
काम लें अब ज़रा तहम्‍मुल से
दोनों मुल्‍कों के साहबे-तदबीर
दिल से तख़रीब का ख़याल हो दूर
और हो जायें माइले-तामीर
रंग इस में ख़ुलूस का भर दें
खिंच रही है जो अम्‍न की तस्‍वीर
अहदो-पैमां हों वक़्फे-इस्‍तक़लाल
उनकी तकमील में नहीं तक़्सीर
अहले-अख़बार हों वफ़ा आमोज़
क़ातए-दोस्‍ती न हो तहरीर
आमतुन्‍नास हों इधर न उधर
किसी उन्‍वान इश्तिआल पज़ीर
अलमे-आश्‍ती बलन्‍द रहे
अन्‍दरूने-नियाम हो शमशीर
हर दो जानिब की बेटियाँ-बहनें
हैं जो मज़बूरे-क़ैदे-बेज़ंजीर
जिस क़दर जल्‍द हो रिहा हो जाएँ
उनका क्‍या जुर्म ? क्‍यों रहें वह असीर
है तक़ाज़ा यही शराफ़त का
दोनों मुल्‍क़ों की इसमें हैं तौक़ीर
रहें आबाद हिन्‍दो-पाकिस्‍ताँ
तेरी रहमत से अय ख़ुदाए-क़दीर
ग़रज परवाज़ हो चुका महरूम
अब कहें कुछ ‘हफ़ीज़’ और ‘तासीर’

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