नवगीत – 6 / श्रीकृष्ण तिवारी

बांस वनों से गूंज सीटियों की आयी,
सन्नाटे की झील पांव तक थर्रायी|

अनदेखे हाथों ने लाकर चिपकाये
दीवारों पर टूटे पंख तितलियों के,
लहर भिगोकर कपड़े पोंछ गयी सारे
दरवाजे पर उभरे चिन्ह उँगलियों के,
खिड़की पर बैठे -बैठे मन भर आया
द्वार बन्द कमरे में तबियत घबरायी|

शीशे के जारों में बन्द मछलियों ने
सूनी आकृतियों में रंग भरे गहरे,
शब्दों को हिलने -डुलने न कहीं देते
नये -पुराने अर्थों के दुहरे पहरे,
एक प्रश्न जो सारे बंधन खोल गया
उत्तर की सीमा उसको न बांध पायी|

कमरे के कोने में पत्र पड़े कल के
हवा उड़ा ले गयी साथ गलियारों में,
सारा का सारा घर -आंगन भींग गया
गली सड़क को धोती हुई फुहारों में,
टकराकर बंट गयी हजारों कोणों में
आदमकद दर्पण में मेरी परछाईं|

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