दिल फ़ुकर्त-ए-हबीब में दीवाना हो गया / ‘हिज्र’ नाज़िम अली खान

दिल फ़ुकर्त-ए-हबीब में दीवाना हो गया
इक मुझ से क्या जहाँ से बेगाना हो गया

क़ासिद को ये मिला मिरे पैग़ाम का जवाब
तू भी हमारी राय में दीवाना हो गया

देखा जो उन को बाम पे ग़श आ गया मुझे
ताज़ा कलीम ओ तूर का अफ़साना हो गया

हाँ हाँ तुम्हारे हुस्न की कोई ख़ता नहीं
मैं हुस्न-ए-इत्तिफाक से दीवाना हो गया

देखा गया न बज़्म में सोज़-ओ-गुदाज़-ए-शमा
फूलों की पंखियाँ पर-ए-परवाना हो गया

यूँ सब से पूछते हैं वो मेरे जुनूँ का हाल
दीवाना बन गया है कि दीवाना हो गया

आँसू बहाए फ़ुकर्त-ए-साकी में इस कदर
लबरेज अपनी उम्र का पैमाना हो गया

दिल उन के बस में है मुझे क्या दिल पर इख़्तियार
कैसा रफीक इश्‍क में बेगाना हो गया

जोश-ए-जुनूँ में छोड़ दिए सब ने अपने घर
आबाद उनके अहद में वीराना हो गया

उन को तो अपनी जलवा-नुमाई से काम है
इस की ख़्बर नहीं कोई दीवाना हो गया

अब हर तरफ रकीब पर उठती है उँगलियाँ
मशहूर उन के इश्‍क का अफसाना हो गया

इस दर्जा ‘हिज्र’ होश-रूबा है किसी का हुस्न
जिस की निगाह पड़ गई दीवाना हो गया
श्रेणी: ग़ज़ल

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