ज्ञान का दंड / रामनरेश त्रिपाठी

(१)
सावन के श्यामघन शोभित गगन में
धरा में हरे कानन विमुग्ध करते हैं मन।
बकुल कदंब की सुगंध से सना समीर
पूरब से आकर प्रमत्त करता है तन॥
पर दूसरे ही छन आकर कहीं से, घूम
जाते हैं नयन में अकिंचन किसान गन।
सारे सुख साज बन जाते हैं विषाद रूप,
ज्ञानी को है ज्ञान दंड सुखी हैं विमूढ़ जन॥

(२)
देखते ही मृग याद आती मृगलोचनी है
फिर भूखे भारत के दृग याद आते हैं।
केकी के कलाप कोकिला के कल गान में
विलाप विधवा का सुन हम दुख पाते हैं॥
अत्याचार पीड़ित किसान के रुदन में
पयोद के विनोद हम भूल भूल जाते हैं।
भोग सकते न सुख भूल सकते न दुख
यों ही दुविधा में पड़े जीवन बिताते हैं॥

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