जंगल / अंजू शर्मा

(सत्तर के दशक में हुए ‘चिपको आन्दोलन’ पर लिखी गयी पुरस्कृत कविता)

वे नहीं थी शिक्षित और बुद्धिजीवी,
उनके पास नहीं थी अपने अधिकारों के प्रति सजगता,
वे सब आम औरतें थीं, बेहद आम, घर और वन को जीने वाली,
वे नहीं जानती थी ग्लोबल वार्मिंग किसे कहते हैं,
वे नहीं जानती थी वे बनने जा रही हैं सूत्रधार
किसी आन्दोलन की,
किन्तु वे जानती और मानती थी
जंगल के उपकार,
वे जानती थी मिटटी, पानी और हवा की उपयोगिता,

वे गाती थी गीत वनों के, पेड़ों के, मिटटी के, हरियाली के,
वे गाया करती थीं….
‘क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार ।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।’

चीन से धोखा खायी सरकार की
अनायास जागी सीमाओं की चिंता ने
लील लिए थे कितने ही हज़ार पेड़,
वे जानती थीं उन नीलाम किये गये रैणी गाँव के ढाई हज़ार पेड़ों पर
ही नहीं रुकेगा ये विध्वंस,
मिटटी बिकी, पानी बिका, बिक गए आज हमारे वन,
खाली हाथ, खाली पेट, अब किस छाँव को ढूंढेंगे हम, .

उस रात वे चुन सकती थी
दिन भर की थकन के बाद सुख और चैन की नींद
वे चुन सकती थी प्रिय का स्नेहिल गर्माता आगोश
वे चुन सकती थी अपने शिशु के पार्श्व में एक ममत्व भरी रात,
वे चुन सकती थी सपने बुनना,
कपडे, गहने और तमाम सुविधाओं के उस रात,

उन्होंने चुना जल, जंगल और जमीन के लिए जागरण को,
उन्होंने चुना वनों को जो उनका रोज़गार था, जीवन था, मायका था,
उन्होंने चुना पेड़ों को जो उनके पिता थे, भाई थे, मित्र थे, बच्चे थे,
उनके मौन होंठों पर आज नहीं था कोई गीत,
उनके खाली हाथों में नहीं था कोई हथियार,
एक हाथ में आशंका और दूसरे में आत्मविश्वास को थामे,
पेड़ों को बाँहों में भरकर बचा लेना चाहती थीं वे क्रूर हाथों से,
वे कहती रहीं खुद से कि वे जंगल की रक्षा करने जा रहीं है,
जबकि साक्षी था ऋषिगंगा का किनारा इस बार वे स्वयं को बचाने निकली थी,
वे लड़ीं हर डर, धमकी या प्रलोभन से,
अपनी आशंका को बदलकर दृढ निश्चय में, चिपक गयी वे पेड़ों से,
वे अट्ठाईस औरतें सीख गयी थीं द्विगुणित होने की कला,
उस एक रात बचाते हुए अपने मायके को,
वे सब आम औरतें आन की आन में खास
हो गयी…

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