छूटा गांव, छूटी गली / अशोक चक्रधर

रोको, रोको !
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

रोक ले बाबुल, दौड़ के आजा, बहरे हुए कहार,
अंधे भी हैं ये, इन्हें न दीखें, तेरे मेरे अंसुओं की धार।
ये डोली मेरी कहां चली,

छूटा-गाँव, छूटी गली।

कपड़े सिलाए, गहने गढ़ाए, दिए तूने मखमल थान,
बेच के धरती, खोल के गैया, बांधा तूने सब सामान,
दान दहेज सहेज के सारा, राह भी दी अनजान,
मील के पत्थर कैसे बांचूं, दिया न अक्षर-ज्ञान।
गिरी है मुझ पर बिजली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

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