चाँद गोरी के घर / पीयूष मिश्रा

चाँद गोरी के घर बारात ले के आ
गोरी ओट में खड़ी है सौगात ले के आ
जो कभी ना बोली गई वो बात ले के आ
जो खिल चुके हों फूल से हालात ले के आ

जिसमें बेकली भी हो, जिसमें शोखियाँ भी हों
जिसमें झिलमिलाती रात की बेहोशियाँ भी हों
जिसमें घोंसला भी हो, तिनकों से बुना अभी
जिसके तिनके हों कि ऐसे जैसे टूटें ना कभी

हो जिसमें सरसराहटें, जिसमें खिलखिलाहटें
जिसमें सुगबुगाहटें, जिसमें कसमसाहटें
जिसमें ज़िन्दगी भी हो, जिसमें बन्दगी भी हो
जिसमें रूठना भी हो तो थोड़ी दिल्लगी भी हो

अनबुझी पहेली सी रात ले के आ
चाँद गोरी के घर बारात ले के आ…

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