चल चुका युग एक जीवन / हरिवंशराय बच्चन

तुमने उस दिन
शब्दों का जाल समेत
घर लौट जाने की बंदिश की थी
सफल हुए ?
तो इरादों में कोई खोट थी .

तुमने जिस दिन जाल फैलाया था
तुमने उदघोष किया था,
तुम उपकरण हो,
जाल फैल रहा है;हाथ किसी और के हैं.
तब समेटने वाले हाथ कैसे तुम्हारे हो गए ?

फिर सिमटना
इस जाल का स्वभाव नहीं;
सिमटता-सा कभी
इसके फैलने का ही दूसरा रूप है,
साँसों के भीतर-बाहर आने-जाने-सा
आरोह-अवरोह के गाने-सा
(कभी किसी के लिए संभव हुआ जाल-समेत
तो उसने जाल को छुआ भी नहीं;
मन को मेटा.
कठिन तप है,बेटा !)

और घर ?
वह है भी अब कहाँ !
जो शब्दों को घर बनाते हैं
वे और सब घरों से निर्वासित कर दिए जाते हैं.
पर शब्दों के मकान में रहने का
मौरूसी हक भी पा जाते हैं .

और ‘लौटना भी तो कठिन है,चल चुका युग एक जीवन’
अब शब्द ही घर हैं,
घर ही जाल है,
जाल ही तुम हो,
अपने से ही उलझो,
अपने से ही उलझो,
अपने में ही गुम हो.

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