ख़ुफ़ता शजर लरज़ उठे जैसे कि डर गये / बशीर बद्र

ख़ुफ़ता शजर लरज़ उठे जैसे कि डर गये
कुछ चाँदनी के फूल ज़मीं पर बिखर गये

शीशे का ताज सर पे रखे आ रही थी रात
टकराई हम से चाँद-सितारे बिखर गये

वो ख़ुश्क होंठ रेत से नम माँगते रहे
जिन की तलाश में कई दरिया गुज़र गये

चाहा था मैंने चाँद की पलकों को चूम लूँ
होठों पे मेरे सुबह के तारे बिखर गये

मेरे लबों पे चाँद की क़ाशें लरज़ गईं
आँखों पे जैसे रात के गेसू बिखर गये

तलवों में नर्म धूप ने जब गुदगुदी सी की
पलकों पे सोये चाँदनी के ख़्वाब डर गये

साहिल पे रुक गये थे ज़रा देर के लिये
आँखों से दिल में कितने समन्दर उतर गये

पाया जो मुस्कुराते हुये कह उठी बहार
जो ज़ख़्म पिछले साल लगाये थे भर गये

जिन पर लिखी हुई थी मोहब्बत की दास्ताँ
वो चाक चाक पुरज़े हवा में बिखर गये

(१९६५)

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