काफ़ी दिन हो गये / भवानीप्रसाद मिश्र

काफ़ी दिन हो गये
लगभग छै साल कहो
तब से एक कोशिश कर रहा हूँ

मगर होता कुछ नहीं है
काम शायद कठिन है
मौत का चित्र खींचना
मैंने उसे
सख्त ठण्ड की एक
रात में देखा था

नंग–धडंग
नायलान के उजाले में खड़े
न बड़े दाँत
न रूखे केश
न भयानक चेहरा
ख़ूबसूरती का
पहरा अंग अंग पर
कि कोई हिम्मत न
कर सके
हाथ लगाने की
आसपास दूर तक कोई
नहीं था उसके सिवा मेरे

मैं तो ख़ूबसूरत अंगों पर
हाथ लगाने के लिए
वैसे भी प्रसिद्ध नहीं हूँ
उसने मेरी तरफ़ देखा नहीं
मगर पीठ फेरकर
इस तरह खड़ी हो गयी
जैसे उसने मुझे देख लिया हो
और

देर तक खड़ी रही
बँध–सा गया था मैं
जब तक
वह गयी नहीं
देखता रहा मैं
उसके
पीठ पर पड़े बाल
नितम्ब पिंडली त्वचा का
रंग और प्रकाश

देखता रहा
पूरे जीवन को
भूलकर

और फिर
बेहोश हो गया
होश जब आया तब मैं

अस्पताल में पड़ा था
बेशक मौत नहीं थी वहां
वह मुझे
बेहोश होते देखकर
चली गई थी
तब से मैं

कोशिश कर रहा हूँ
उसे देखने की
लेकिन हर बार

क़लम की नोंक पर
बन देता है कोई
मकड़ी का जाला
या बाँध देता है
कोई चीथड़-सा
या कभी

नोक टूट जाती है
कभी एकाध
ठीक रेखा खींच कर

हाथ से छूट जाती है
लगभग छै साल से
कोशिश कर रहा हूँ मैं

मौत का चित्र
खींचने की
मगर होता कुछ नहीं है!

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