कवि / रसवन्ती / रामधारी सिंह “दिनकर”

कवि

ऊषा भी युग से खड़ी लिए
प्राची में सोने का पानी,
सर में मृणाल-तूलिका, तटी
में विस्तृत दूर्वा-पट धानी।

खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती
राका की मुसकान किसे?
विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा
अन्तर था मुकुर-समान किसे?

दन्तुरित केतकी की छवि पर
था कौन मुग्ध होनेवाला?
रोती कोयल थी खोज रही
स्वर मिला संग रोनेवाला।

अलि की जड़ सुप्त शिराओं को
थी कली विकल उकसाने को,
आकुल थी मधु वेदना विश्व की
अमर गीत बन जाने को।

थी व्यथा किसे प्रिय? कौन मोल
करना आँखों के पानी का?
नयनों को था अज्ञात अर्थ
तब तक नयनों की वाणी का।

उर के क्षत का शीतल प्रलेप
कुसुमों का था मकरन्द नहीं;
विहगों के आँसू देख फूटते
थे मनुजों के छन्द नहीं।

मृगदृगी वन्य-कन्या कर पाई
थी मृगियों से प्यार नहीं,
हाँ, प्रकृति-पुरुष तब तक मिल
हो पाये थे एकाकार नहीं।

शैथिल्य देख कलियाँ रोईं,
अन्तर से सुरभित आह उठी;
ऊसर ने छोड़ी साँस, एक दिन
धर्णी विकल कराह उठी।

यों विधि-विधान को दुखी देख
वाणी का आनन म्लान हुआ;
उर को स्पन्दित करनेवाले
कवि के अभाव का ज्ञान हुआ।

आह टकराई सुर-तरु में,
पुष्प आ गिरा विश्व-मरु में।

*:*

कवि! पारिजात के छिन्न कुसुम
तुम स्वर्ग छोड़ भू पर आए,
उर-पद्म-कोष में छिपा दिव्य
नन्दनवन का सौरभ लाए।

जिस दिन तमसा-तट पर तुमने
दी फूँक बाँसुरी अनजाने,
शैलों की श्रुतियाँ खुलीं, लगे
नीड़ों में खग उठ-उठ गाने।

फूलों को वाणी मिली, चेतना
पा हरियाली डोल गई,
पुलकातिरेक में कली भ्रमर से
व्यथा हृदय की बोल गई।

प्राणों में कम्पन हुआ, विश्व की
सिहर उठी प्रत्येक शिरा;
तुम से कुछ कहने लगी स्वयं
तृण-तृण में हो साकार गिरा।

निर्झर मुख पर चढ़ गया रंग
सुनहरी उषा के पानी का;
उग गया चित्र हिम-विन्दु-पूर्ण
किसलय पर प्रणय-कहानी का।

अंकुरित हुआ नव प्रेम, कंटकित
काँप उठी युवती वसुधा;
रस-पूर्ण हुआ उर-कोष, दृगों में
छलक पड़ी सौन्दर्य-सुधा।

कवि! तुम अनंग बनकर आए
फूलों के मृदु शर-चाप लिये,
चिर-दुखी विश्व के लिए प्रेम का
एक और संताप लिए।

सीखी जगती ने जलन, प्रेम पर
जब से बलि होना सीखा;
फूलों ने बाहर हँसी, और
भीतर-भीतर रोना सीखा।

उच्छ्वासों से गल मोम हुई
ऊसर की पाषाणी कारा;
सींचने चली संसार तुम्हारे
उर की सुधा-मधुर धारा।

तुमने जो सुर में भरा
शिशिर-क्रंदन में भी आनंद मिला;
रसवती हुई वेदना, आँसूओं
में जग को मकरन्द मिला।

मेघों पर चढ़ कर प्रिया पास
प्रेमी की व्याकुल आह चली;
वन-वन दमयन्ती विकल खोजती
निर्मोही की राह चली।

कवि! स्वर्ग-दूत या चरम स्वप्न
विधि का तुमको सुकुमार कहें?
नन्दन-कानन का पुष्प, व्यथा-
जग का या राजकुमार कहें?

विधि ने भूतल पर स्वर्ग-लोक
रचने का दे सामान तुम्हें;
अपनी त्रुटि को पूरी करने का
दिया दिव्य वरदान तुम्हें।

सब कुछ देकर भी चिर-नवीन,
चिर-ज्वलित व्यथा का रोग दिया;
फूलों से रचकर गात, भाग्य
में लिख शूलों का भोग दिया

जीवन का रस-पीयूष नित्य
जग को करना है दान तुम्हें
हे नीलकंठ, संतोष करो,
था लिखा गरल का पान तुम्हें।

कितना जीवन रस पिला-पिला
पाली तुमने कविता प्यारी?
कवि! गिनो, घाव कितने बोलो,
उर-बीच उगे बारी-बारी?

सूने में रो-रो बहा चुके
जग का कितना उपहास कहो?
दुनिया कहती है गीत जिन्हें,
उन गीतों का इतिहास कहो।

दाएँ कर से जल को उछाल
तट पर बैठे क्यों मौन? अरे!
बाएँ कर से मुख ढाँक लिया,
चिन्ता जागी यह कौन? हरे!

किरणे लहरों से खेल रहीं,
मेरे कवि! आह, नयन खोलो;
क्यों सिसक-सिसक रो रहे? हाय
हे देवदूत, यह क्या बोलो?

“आँखों से पूछो, स्यात, आँसुओं
में गीतों का भेद मिले;
मुझको इतना भर ज्ञात, व्यथा
जब हरी हुई, सब वेद मिले।

“पाली मैंने जो आग, लगा
उसको युग का जादू-टोना;
फूटती नहीं, हाँ जला रही
चुपके उर का कोना-कोना।

आँखें जो कुछ हैं दे रही
उनका कहना भी पाप मुझे;
क्या से क्या होगा विश्व, यही
चिन्ता, विस्मय, सन्ताप मुझे।

“मुझको न याद, किस दिन मैंने
किस अमर व्यथा का पान किया;
दुनिया कहती है गीत, रुदन कर
मैंने साँज-विहान किया”
*:*

आँसू पर देता विश्व हृदय का
कोहिनूर उपहार नहीं;
रोओ कवि! दैवी व्यथा विश्व में
पा सकती उपचार नहीं।

रोओ, रोना वरदान यहाँ
प्राणों का आठों याम हुआ;
रोओ, धरणी का मथित हलाहल
पीकर ही नभ श्याम हुआ।

खारी लहरों पर स्यात, कहीं
आशा का तिरता कोक मिले;
रोओ कवि! आँसू-बीच, स्यात,
धरणी को नव आलोक मिले।

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