कभी बादल, कभी कश्ती, कभी गर्दाब लगे / निदा फ़ाज़ली

कभी बादल, कभी कश्ती, कभी गर्दाब लगे
वो बदन जब भी सजे कोई नया ख्वाब लगे

एक चुप चाप सी लड़की, न कहानी न ग़ज़ल
याद जो आये कभी रेशम-ओ-किम्ख्वाब लगे

अभी बे-साया है दीवार कहीं लोच न ख़म
कोई खिड़की कहीं निकले कहीं मेहराब लगे

घर के आँगन मैं भटकती हुई दिन भर की थकन
रात ढलते ही पके खेत सी शादाब लगे

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *