ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए / हकीम ‘नासिर’

ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए
इस मेरी तबाही में तिरा नाम न आए

ये दर्द है हम-दम उसी ज़ालिम की निशानी
दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए

काँधे पे उठाए हैं सितम राह-ए-वफा के
शिकवा मुझे तुम से है कि दो-गाम न आए

लगता है कि फैलेगी शब-ए-ग़म की सियाही
आँसू मिरी पलकों पे सर-ए-शाम न आए

मैं बैठ के पीता रहूँ बस तेरी नज़र से
हाथों में कभी मेरे कोई जाम न आए

बैठा हूँ दिया घर का जो ‘नासिर’ में जला के
ऐसा न हो फिर वो दिल-ए-ना-काम में आए

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