एक पत्र का अंश / दुष्यंत कुमार

मुझे लिखना
वह नदी जो बही थी इस ओर!
छिन्न करती चेतना के राख के स्तूप,
क्या अब भी वहीं है?
बह रही है?
—या गई है सूख वह
पाकर समय की धूप?

प्राण! कौतूहल बड़ा है,
मुझे लिखना,
श्वाँस देकर खाद
परती कड़ी धरती चीर
वृक्ष जो हमने उगाया था नदी के तीर
क्या अब भी खड़ा है?
—या बहा कर ले गई उसको नदी की धार
अपने साथ, परली पार?

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