उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले / ‘ज़फ़र’ इक़बाल

उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
जिसे ग़ुबार समझते थे कारवाँ वाले

मैं अपनी धुन में यहाँ आँधियाँ उठाता हूँ
मगर कहाँ वो मज़े ख़ाक-ए-आशियाँ वाले

मुझे दिया न कभी मेरे दुश्मनों का पता
मुझे हवा से लड़ाते रहे जहाँ वाले

मेरे सराब-ए-तमन्ना पे रश्क था जिन को
बने हैं आज वही बहर-ए-बे-कराँ वाले

मैं नाला हूँ मुझे अपने लबों से दूर न रख
मुझी से ज़िन्दा है तू मेरे जिस्म-ओ-जाँ वाले

ये मुश्त-ए-ख़ाक ‘ज़फर’ मेरा पैरहन ही तू है
मुझे ज़मीं से डराएँ न कहकशाँ वाले

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