आता हूँ जब उस गली से सौ सौ ख़्वारी खींच कर / ‘हसरत’ अज़ीमाबादी

आता हूँ जब उस गली से सौ सौ ख़्वारी खींच कर
फिर वहीं ले जाए मुझ को बे-क़रारी खींच कर

पहुँचा है अब तो निहायत को हमारा हाल-ए-ज़ार
ला उसे जिस-तिस तरह तासीर-ए-ज़ारी खींच कर

कोह-ए-ग़म रखती है दिल पर इस ख़िराम-ए-नाज़ से
ख़ज्लत-ए-रफ़्तार-ए-कबक-ए-कोहसारी खींच कर

किस के शोर-ए-इश्‍क़ से यूँ रोता रहता है सदा
नाला ओ फरियाद ये अब्र-ए-बहारी खींच कर

बाँधू हूँ वारस्तगी का दिल में अपने जब ख़याल
बाँध ले जाएँ हमें ज़ुल्फें तुम्हारी खींच कर

कल जो तू घर से न निकला उठ गया कर के दुआ
सुब्ह से ता-शाम मैं क्या इंतिज़ारी खींच कर

गालियाँ दे मार ले या क़त्ल कर मुख़्तार है
लाई अब तो याँ मुझे बे-इख़्तियारी खींच कर

साक़िया पैहम पिला दे मुझ को माला माल जाम
आया हूँ याँ मैं अज़ाब-ए-होश-यारी खींच कर

‘हसरत’ उस की बज़्म के जाने से रख मुझ को मुआफ़
मुफ़्त में रोएगा वाँ से शर्म-सारी खींच कर

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