अन्तर्वासिनी / रामधारी सिंह “दिनकर”

अंतरवासिनी

अधखिले पद्म पर मौन खड़ी
तुम कौन प्राण के सर में री?
भीगने नहीं देती पद की
अरुणिमा सुनील लहर में री?
तुम कौन प्राण के सर में ?

[१]

शशिमुख पर दृष्टि लगाये
लहरें उठ घूम रही हैं,
भयवश न तुम्हें छू पातीं
पंकज दल चूम रही हैं;
गा रहीं चरण के पास विकल
छवि-बिम्ब लिए अंतर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?

कुछ स्वर्ण-चूर्ण उड़-उड़ कर
छा रहा चतुर्दिक मन में,
सुरधनु-सी राज रही तुम
रंजित, कनकाभ गगन में;
मैं चकित, मुग्ध, हतज्ञान खड़ा
आरती-कुसुम ले कर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?

[३]

जब से चितवन ने फेरा
मन पर सोने का पानी,
मधु-वेग ध्वनित नस-नस में,
सपने रंगे रही जवानी;
भू की छवि और हुई तब से
कुछ और विभा अम्बर में री।
तुम कौन प्राण के सर में?

[४]

अयि सगुण कल्पने मेरी!
उतरो पंकज के दल से,
अन्तःसर में नहलाकर
साजूँ मैं तुम्हें कमल से;
मधु-तृषित व्यथा उच्छ‌वसित हुई,
अन्तर की क्षुधा अधर में री।
तुम कौन प्राण के सर में ?

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