पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू. निरधार अधार है झार मंझार दई, गहि बाँह न बोरिये जू . ‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू . रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू .
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तब तौ छबि पीवत जीवत है / घनानंद
तब तौ छबि पीवत जीवत है अब सोचन लोचन जात जरे हित-पोष के तोष सुप्राण पले बिललात महादुख दोष भरे. ‘घनआनन्द’ मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे तब हार पहाड़ से लागत है अब आनि के बीच पहार परे.
प्रीतम सुजान मेरे हित के / घनानंद
कवित्त प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ। तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ। चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो सुजान रूप-बावरो, बदन दरसायहौ। बिरह नसाय, दया हिय मैं बसाय, आय हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 12 ।।
क्यों हँसि हेरि हियरा / घनानंद
सवैया क्यों हँसि हेरि हियरा अरू क्यौं हित कै चित चाह बढ़ाई। काहे कौं बालि सुधासने बैननि चैननि मैननि सैन चढ़ाई। सौ सुधि मो हिय मैं घन-आनँद सालति क्यौं हूँ कढ़ै न कढ़ाई। मीत सुजान अनीत की पाटी इते पै न जानियै कौनै पढ़ाई।। 11 ।।
पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ / घनानंद
सवैया पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी। अब लाय बियोग की लाय बलाय बढ़ाय, बिसास दगानि दगी। अँखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहुँ लगै, कौन घरी सुलगी। मति दौरि थकी, न लहै ठिकठौर, अमोही के मोह मिठामठगी।। 10 ।।
मीत सुजान अनीत करौ जिन / घनानंद
सवैया मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही। डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही। एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही। हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।। 9 ।।
हीन भएँ जल मीन अधीन / घनानंद
सवैया हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने। नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै। प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै। या मन की जु दसा घनआनँद जीव की जीवनि जान ही जानै।। 8 ।।
भए अति निठुर / घनानंद
भए अति निठुर, मिटाय पहचानि डारी, याही दुख में हमैं जक लागी हाय हाय है। तुम तो निपट निरदई, गई भूलि सुधि, हमैं सूल सेलनि सो क्योहूँन भुलाय है। मीठे मीठे बोल बोलि ठगी पहिलें तौ तब, अब जिय जारत कहौ धौ कौन न्याय है। सुनी है कै नाहीं, यह प्रगट कहावति जू, काहू कलपायहै… Continue reading भए अति निठुर / घनानंद
भोर तें साँझ लौ कानन ओर निहारति / घनानंद
सवैया भोर तें साँझ लौ कानन ओर निहारति बावरी नेकु न हारति। साँझ तें भोर लौं तारनि ताकिबो तारनि सों इकतार न टारति। जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनँद आँसुनि औसर गारति। मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति।। 6 ।।
जासों प्रीति ताहि निठुराई / घनानंद
जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह, कैसे करि जिय की जरनि सो जताइये। महा निरदई दई कैसें कै जिवाऊँ जीव, बेदन की बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै। दुख को बखान करिबै कौं रसना कै होति, ऐपै कहूँ बाको मुख देखन न पाइयै। रैन दिन चैन को न लेस कहूँ पैये भाग, आपने ही ऐसे दोष… Continue reading जासों प्रीति ताहि निठुराई / घनानंद