वैस की निकाई, सोई रितु सुखदायी, तामें – वरुनाई उलहत मदन मैमंत है । अंग-अंग रंग भरे दल-फल-फूल राजैं, सौरभ सरस मधुराई कौ न अंत है ॥ मोहन मधुप क्यों न लटू ह्वै सुभाय भटू, प्रीति कौ तिलक भाल धरै भागवंत है । सोभित सुजान ’घनाआनँद’ सुहाग सींच्यौ, तेरे तन-बन सदा बसत बसंत है ॥
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बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे / घनानंद
बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ। कहि कहि आवन सँदेसो मनभावन को, गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै, अब न घिरत घनआनँद निदान कौ। अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥
प्रेम को महोदधि अपार / घनानंद
प्रेम को महोदधि अपार हेरि कै, बिचार, बापुरो हहरि वार ही तैं फिरि आयौ है। ताही एकरस ह्वै बिबस अवगाहैं दोऊ, नेही हरि राधा, जिन्हैं देखें सरसायौ है। ताकी कोऊ तरल तरंग-संग छूट्यौ कन, पूरि लोक लोकनि उमगि उफ़नायौ है। सोई घनआनँद सुजान लागि हेत होत, एसें मथि मन पै सरूप ठहरायौ है॥
स्याम घटा लपटी थिर बीज / घनानंद
स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सौहै अमावस-अंक उज्यारी। धूप के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग-सीतलता-सुख-कारी। कै छवि छायो सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी। कैसी फ़बी घनआनँद चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥
बरसै तरसै सरसै अरसै न् / घनानंद
बरसैं तरसैं सरसैं अरसैं न, कहूँ दरसैं इहि छाक छईं। निरखैं परखैं करखैं हरखैं उपजी अभिलाषनि लाख जईं। घनआनँद ही उनए इनि मैं बहु भाँतिनि ये उन रंग रईं। रसमूरति स्यामहिं देखत ही सजनी अँखियाँ रसरासि भईं॥
परकाजहि देह को धारि फिरौ / घनानंद
परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ। निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ। घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ। कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥
जिय की बात जनाईये क्यौं करि / घनानंद
जिय की बात जनाइये क्यों करि, जान कहाय अजाननि आगौ. तीरन मारि कै पीरन पावत, एक सो मानत रोइबो रागौ. ऐसी बनी ‘घनआनन्द’ आनि जु, आनन सूझत सो किन त्यागौ. प्रान मरेंगे भरेंगे बिथा पै, अमोही से काहू को मोह न लागौ.
पूरन प्रेम को मंत्र / घनानंद
पूरन प्रेम को मंत्र महा पन, जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ। ताही के चारू चरित्र बिचित्रनि यौं पचि कै राचि राखि बिसेख्यौं ऎसो हियो-हित-पत्र पवित्र जु आन कथा न कहूँ अवरेख्यौ। सो घनआनँद जान, अजान लौं टूक कियो पर बाँचि न देख्यौ॥
जिन आँखिन रूप-चिह्नारि / घनानंद
जिन आँखिन रूप-चिन्हार भई, तिनको नित ही दहि जागनिहै. हित-पीरसों पूरित जो हियरा, फिरि ताहि कहाँ कहु लागनिहै. ‘घनआनन्द’ प्यारे सुजान सुनौ, जियराहि सदा दुख दागनि है. सुख में मुख चंद बिना निरखे, नखते सिख लौं बिख पागनि है.
अंतर मैं बासी / घनानंद
अंतर मैं बसी पै प्रवासी कैसो अंतर है, मेरी न सुनत दैया ! आपनीयौ ना कहौ. लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब,सूझी नाहीं, बुझि न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ. हौ तौ जानराय,जाने जाहु न अजान यातें, आँनंद के घन छाया छाय उघरे रहौ . मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैऐ नेकु, हमैं खोय या… Continue reading अंतर मैं बासी / घनानंद