मक़बूल-ए-अवाम हो गया मैं गोया के तमाम हो गया मैं एहसास की आग से गुज़र कर कुछ और भी ख़ाम हो गया मैं दीवार-ए-हवा पे लिख गया वो यूँ नक़्श-ए-दवाम हो गया मैं पत्थर के पाँव धो रहा था पानी का पयाम हो गया मैं उड़ता हुआ अक्स देखते ही फैला हुआ दाम हो गया… Continue reading मक़बूल-ए-अवाम हो गया मैं / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
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मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने मेरी सदा के फूल बिखर मेरे सामने आख़िर वो आरज़ू मेरे सर पर सवार थी लाए थे जिस को ख़ाक-ब-सर मेरे सामने कहते नहीं हैं उस का सुख़न मेरे आस पास देते नहीं हैं उस की ख़बर मेरे सामने आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-बा-रू पीछे मुड़ूँ… Continue reading मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
ख़ुशी मिली तो ये आलम था / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का के ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का चमक उठे हैं जो दिल के कलस यहाँ से अभी गुज़र हुआ है ख़यालों की देव-दासी का गुज़र न जा यूँही रुख़ फेर कर सलाम तो ले हमें तो देर से दावा है रू-शनासी का ख़ुदा को मान… Continue reading ख़ुशी मिली तो ये आलम था / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे जहाँ पानी न मिले आज वहाँ मार मुझे धूप ज़ालिम ही सही जिस्म तवाना है अभी याद आएगा कभी साया-ए-अश्जार मुझे साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे बाग़ की क़ब्र पे रोते हुए देखा था जिसे नज़र आया वही साया सर-ए-दीवार… Continue reading खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए ख़्वाब की ताबीर पर इसरार है जिन को अभी पहले उन को ख़्वाब से बेदार होना चाहिए डूब कर मरना भी उसलूब-ए-मोहब्बत हो तो हो वो जो दरिया है तो उस को पार होना चाहिए अब वही करने लगे दीदार से आगे की… Continue reading ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट एक दो पल के लिए गुलदान कर देगा मुझे रूह फूँकेगा मोहब्बत की मेरे पैकर में वो फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे ख़्वाहिशों का ख़ूँ बहाएगा… Continue reading कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है समझता हूँ ग़ुबार-ए-आसमाँ फैला हुआ है मैं इस को देखने और भूल जाने में मगन हूँ मेरे आगे जो ये ख़्वाब-ए-रवाँ फैला हुआ है इन्ही दो हैरतों के दरमियाँ मौजूद हूँ मैं सर-ए-आब-ए-यक़ीं अक्स-ए-गुमाँ फैला हुआ है रिहाई की कोई सूरत निकलनी चाहिए अब ज़मीं सहमी… Continue reading जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है कोई कह दे अगर पहले कभी ऐसा खिला है अज़ल से गुलशन-ए-हस्ती में है मौजूद भी वो मगर लगता है जैसे आज ही ताज़ा खिला है बहम कैसे हुए हैं देखना ख़्वाब और ख़ुश-बू गुज़रते मौसमों का आख़िरी तोहफ़ा खिला है लहू में इक अलग अंदाज़ से मस्तूर… Continue reading चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
चलो इतनी तो आसानी रहेगी / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
चलो इतनी तो आसानी रहेगी मिलेंगे और परेशानी रहेगी इसी से रौनक़-ए-दरिया-ए-दिल है यही इक लहर तूफ़ानी रहेगी कभी ये शौक़ ना-मानूस होगा कभी वो शक्ल अनजानी रहेगी निकल जाएगी सूरत आइने से हमारे घर में हैरानी रहेगी सुबुक-सर हो के जीना है कोई दिन अभी कुछ दिन गिराँ-जानी रहेगी सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट… Continue reading चलो इतनी तो आसानी रहेगी / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
बस एक बार किसी ने गले लगाया था / ‘ज़फ़र’ इक़बाल
बस एक बार किसी ने गले लगाया था फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था… Continue reading बस एक बार किसी ने गले लगाया था / ‘ज़फ़र’ इक़बाल