कबीर पूँजी साह की, तूँ जिनि खोवै ष्वार। खरी बिगूचनि होइगी, लेखा देती बार॥1॥ लेखा देणाँ सोहरा, जे दिल साँचा होइ। उस चंगे दीवाँन मैं, पला न पकड़े कोइ॥2॥ कबीर चित्त चमंकिया, किया पयाना दूरि। काइथि कागद काढ़िया, तब दरिगह लेखा पूरि॥3॥ काइथि कागद काढ़ियां, तब लेखैं वार न पार। जब लग साँस सरीर मैं,… Continue reading साँच कौ अंग / साखी / कबीर
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सहज कौ अंग / साखी / कबीर
सहज सहज सबकौ कहै, सहज न चीन्है कोइ। जिन्ह सहजै विषिया तजी, सहज कही जै सोइ॥1॥ सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हें कोइ। पाँचू राखै परसती, सहज कही जै सोइ॥2॥ सहजै सहजै सब गए, सुत बित कांमणि कांम। एकमेक ह्नै मिलि रह्या, दास, कबीरा रांम॥3॥ सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हैं कोइ। जिन्ह… Continue reading सहज कौ अंग / साखी / कबीर
कामी नर कौ अंग / साखी / कबीर
कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि। राग सनेही, ऊबरे, बिषई खाये झारि॥1॥ काँमणि मीनीं पाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ। जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकटि न जाइ॥2॥ परनारी राता फिरै, चोरी बिढता खाँहिं। दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाँहिं॥3॥ पर नारी पर सुंदरी बिरला बंचै कोइ। खाताँ मीठी खाँड सी, अंति कालि विष… Continue reading कामी नर कौ अंग / साखी / कबीर
कथणीं बिना करणी कौ अंग / साखी / कबीर
मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग। राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥1॥ कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ। बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥2॥ कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार। पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥3॥ पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित… Continue reading कथणीं बिना करणी कौ अंग / साखी / कबीर
करणीं बिना कथणीं कौ अंग / साखी / कबीर
कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ। कालबूत के कोट ज्यूँ, देषतहीं ढहि जाइ॥1॥ जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल। पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥2॥ जैसी मुष तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं। मानिष नहीं ते स्वान गति, बाँध्या जमपुर जाँहिं॥3॥ पद गोएँ मन हरषियाँ, सापी कह्याँ अनंद। सों तन नाँव… Continue reading करणीं बिना कथणीं कौ अंग / साखी / कबीर
चाँणक कौ अंग / साखी / कबीर
जीव बिलव्या जीव सों, अलप न लखिया जाइ। गोबिंद मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ॥1॥ इही उदर के कारणै, जग जाँच्यो निस जाम। स्वामी पणौ जु सिर चढ़ो, सर्या न एको काम॥2॥ स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणाँ दास। गाडर आँणीं ऊन कूँ, बाँधी चरै कपास॥3॥ स्वामी हूवा सीतका, पैका कार पचास। राम नाँम काँठै… Continue reading चाँणक कौ अंग / साखी / कबीर
माया कौ अंग / साखी / कबीर
जग हठवाड़ा स्वाद ठग, माया बेसाँ लाइ। रामचरण नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ॥1॥ टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है- कबीर जिभ्या स्वाद ते, क्यूँ पल में ले काम। अंगि अविद्या ऊपजै, जाइ हिरदा मैं राम॥2॥ कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि। सब जग तो फंधै पड़ा, गया कबीरा काटि॥2॥ कबीर माया पापणीं,… Continue reading माया कौ अंग / साखी / कबीर
सूषिम जनम कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल। कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥ प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ। जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥ टिप्पणी: ख-में इसके आगे ये दोहे हैं- कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि। उपजित उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥ कबीर संसा दूरि करि,… Continue reading सूषिम जनम कौ अंग / साखी / कबीर
सूषिम मारग कौ अंग / साखी / कबीर
कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ। उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥ उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ। इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥ टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है- कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ। नाँनाँ बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥ सबकूँ बूझत मैं… Continue reading सूषिम मारग कौ अंग / साखी / कबीर
मन कौ अंग / साखी / कबीर
मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि। ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥ टिप्पणी: ख तेरा तार ज्यूँ। चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ। इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥ टिप्पणी: ख-परस निबारिए। आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति। जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥ कबीर सेरी साँकड़ी… Continue reading मन कौ अंग / साखी / कबीर