तननाँ बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिखि लिया शरीर॥टेक॥ जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटै राम सनेह॥ ठाड़ी रोवै कबीर की माइ, ए लरिका क्यूँ जीवै खुदाइ। कहै कबीर सुनहुँ री माई, पूरणहारा त्रिभुवन राइ॥21॥ जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ। धर जाजरौ बलीडौ टेढ़ौ, औलोती डर राइ॥टेक॥ मगरी तजौ प्रीति पाषे सूँ… Continue reading राग गौड़ी / पृष्ठ – ३ / पद / कबीर
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राग गौड़ी / पृष्ठ – २ / पद / कबीर
एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥ पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई। जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥ बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥ तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल। कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ… Continue reading राग गौड़ी / पृष्ठ – २ / पद / कबीर
राग गौड़ी / पृष्ठ – १ / पद / कबीर
दुलहनी गावहु मंगलचार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥ तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती। राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥ सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार। रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥ सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी। कहै कबीर हँम ब्याहि चले… Continue reading राग गौड़ी / पृष्ठ – १ / पद / कबीर
अबिहड़ कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर साथी सो किया, जाके सुख दुख नहीं कोइ। हिलि मिलि ह्नै करि खेलिस्यूँ कदे बिछोह न होइ॥1॥ कबीर सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ। गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ॥2॥ आदि मधि अरु अंत लौं, अबिहड़ सदा अभंग। कबीर उस करता की, सेवग तजै न संग॥3॥809॥
बेलि कौ अंग / साखी / कबीर
अब तौ ऐसी ह्नै पड़ी, नाँ तूँ बड़ी न बेलि। जालण आँणीं लाकड़ी, ऊठी कूँपल मेल्हि॥1॥ आगै आगै दौं जलैं, पीछै हरिया होइ। बलिहारी ता विरष की, जड़ काट्याँ फल होइ॥2॥ टिप्पणी: ख-दौं बलै। जे काटौ तो डहडही, सींचौं तौ कुमिलाइ। इस गुणवंती बेलि का, कुछ गुँण कहाँ न जाइ॥3॥ आँगणि बेलि अकासि फल, अण… Continue reading बेलि कौ अंग / साखी / कबीर
साषीभूत कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर पूछै राँम कूँ, सकल भवनपति राइ। सबही करि अलगा रहौ, सो विधि हमहिं बताइ॥1॥ जिहि बरियाँ साईं मिलै, तास न जाँणै और। सब कूँ सुख दे सबद करि, अपणीं अपणीं ठौर॥2॥ कबीर मन का बाहुला, ऊँचा बहै असोस। देखत ही दह मैं पड़े, दई किसा कौं दोस॥3॥800॥
बीनती कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर साँईं तो मिलहगे, पूछिहिगे कुसलात। आदि अंति की कहूँगा, उर अंतर की बात॥1॥ टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है। कबीर भूलि बिगाड़िया, तूँ नाँ करि मैला चित। साहिब गरवा लोड़िये, नफर बिगाड़ै नित ॥2॥ करता करै बहुत गुण, औगुँण कोई नाहिं। जे दिल खोजौ आपणीं, तो सब औगुण मुझ माँहिं॥3॥ टिप्पणी: ख-प्रति में… Continue reading बीनती कौ अंग / साखी / कबीर
निगुणाँ कौ अंग / साखी / कबीर
हरिया जाँणै रूषड़ा, उस पाँणीं का नेह। सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह॥1॥ झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया, पाँहण ऊपरि मेह। माटी गलि सैंजल भई, पाँहण वोही तेह॥2॥ पार ब्रह्म बूठा मोतियाँ, बाँधी सिषराँह। सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूक पड़ी निगुराँह॥3॥ कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूँगर सिषराँह। नीर मिबाणाँ ठाहरै, नाऊँ छा परड़ाँह॥4॥ कबीर मूँडठ… Continue reading निगुणाँ कौ अंग / साखी / कबीर
निंद्या कौ अंग / साखी / कबीर
लोगे विचारा नींदई, जिन्ह न पाया ग्याँन। राँम नाँव राता रहै, तिनहूँ, न भावै आँन॥1॥ टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है- निंदक तौ नाँकी, बिना, सोहै नकटयाँ माँहि। साधू सिरजनहार के, तिनमैं सोहै नाँहि॥2॥ दोख पराये देखि करि, चल्या हसंत हसंत। अपने च्यँति न आवई, जिनकी आदि न अंत॥2॥ निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि… Continue reading निंद्या कौ अंग / साखी / कबीर
कस्तूरियाँ मृग कौ अंग / साखी / कबीर
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि। ऐसै घटि घटि राँम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि॥1॥ कोइ एक देखै संत जन, जाँकै पाँचूँ हाथि। जाके पाँचूँ बस नहीं, ता हरि संग न साथि॥2॥ सो साईं तन में बसै, भ्रम्यों न जाणै तास। कस्तूरी के मृग ज्यूँ फिरि फिरि सूँघै घास॥3॥ टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये… Continue reading कस्तूरियाँ मृग कौ अंग / साखी / कबीर