सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो सो रहे हैं दर्द उन को मत जगाओ चुप रहो रात का पत्थर न पिघलेगा शुआओं के बग़ैर सुब्ह होने तक न बोलो हम-नवाओ चुप रहो बंद हैं सब मय-कदे साक़ी बने हैं मोहतसिब ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो तुम को है मालूम आख़िर कौन सा… Continue reading सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो / क़तील
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शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है / क़तील
शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे ये दिल समंदरों की गहराई चाहता है शहरों में वो घुटन है इस दौर में के इंसाँ गुमनाम जंगलों की पुरवाई चाहता है कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की ख़नक में इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई… Continue reading शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है / क़तील
फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा / क़तील
फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा अब है यही इंसाफ़ का आलम देखने वाले देखता जा परवानों की राख उड़ा दी बाद-ए-सहर के झोंकों ने शम्मा बनी है पैकर-ए-मातम देखने वाले देखता जा जाम-ब-जाम लगी हैं मोहरें मय-ख़ानों पर पहरे हैं रोती है बरसात छमा-छम देखने वाले देखता जा इस नगरी… Continue reading फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा / क़तील
मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था / क़तील
मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था वो इस लिए के राह का पत्थर भी मैं ही था शक हो चला था मुझ को ख़ुद अपनी ही ज़ात पर झाँका तो अपने ख़ोल के अंदर भी मैं ही था होंगे मेरे वजूद के साए अलग अलग वरना बरून-ए-दर भी पस-ए-दर भी… Continue reading मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था / क़तील
क्या जाने किस ख़ुमार में / क़तील
क्या जाने किस ख़ुमार में किस जोश में गिरा वो फल शजर से जो मेरी आग़ोश में गिरा कुछ दाएरा से बन गए साथ-ए-ख़याल पर जब कोई फूल साग़र-ए-मय-नोश में गिरा बाक़ी रही न फिर वो सुनहरी लकीर भी तारा जो टूट कर शब-ए-ख़ामोश में गिरा उड़ता रहा तो चाँद से यारा न था मेरा… Continue reading क्या जाने किस ख़ुमार में / क़तील
जब अपने एतिक़ाद के महवर से हट गया / क़तील
जब अपने एतिक़ाद के महवर से हट गया मैं रेज़ा रेज़ा हो के हरीफ़ों में बट गया दुश्मन के तन पे गाड़ दिया मैं ने अपना सर मैदान-ए-कार-जार का पाँसा पलट गया थोड़ी सी और ज़ख़्म को गहराई मिल गई थोड़ा सा और दर्द का एहसास घट गया दर-पेश अब नहीं तेरा ग़म कैसे मान… Continue reading जब अपने एतिक़ाद के महवर से हट गया / क़तील
हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ / क़तील
हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ शीशे के महल बना रहा हूँ सीने में मेरे है मोम का दिल सूरज से बदन छुपा रहा हूँ महरूम-ए-नज़र है जो ज़माना आईना उसे दिखा रहा हूँ अहबाब को दे रहा हूँ धोका चेहरे पे ख़ुशी सजा रहा हूँ दरिया-ए-फ़ुरात है ये दुनिया प्यासा ही पलट कर जा… Continue reading हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ / क़तील
दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं / क़तील
दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं लोग अब मुझ को तेरे नाम से पहचानते हैं आईना-दार-ए-मोहब्बत हूँ के अरबाब-ए-वफ़ा अपने ग़म को मेरे अंजाम से पहचानते हैं बादा ओ जाम भी इक वजह-ए-मुलाक़ात सही हम तुझे गर्दिश-ए-अय्याम से पहचानते हैं पौफटे क्यूँ मेरी पलकों पे सजाते हो उन्हें ये सितारे तो मुझे शाम… Continue reading दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं / क़तील
प्यार की राह में ऐसे भी मकाम आते हैं/ क़तील
प्यार की राह में ऐसे भी मक़ाम आते हैं | सिर्फ आंसू जहाँ इन्सान के काम आते हैं || उनकी आँखों से रखे क्या कोई उम्मीद-ए-करम | प्यास मिट जाये तो गर्दिश में वो जाम आते हैं || ज़िन्दगी बन के वो चलते हैं मेरी सांस के साथ | उनको ऐसे भी कई तर्ज़-ए-खराम आते… Continue reading प्यार की राह में ऐसे भी मकाम आते हैं/ क़तील
देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील
देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो | मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो || लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे| यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो|| गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है| तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो|| ग़म कोई भी… Continue reading देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील