लेखा देणां सोहरा, जे दिल सांचा होइ । उस चंगे दीवान में, पला न पकड़ै कोइ ॥1॥ भावार्थ – दिल तेरा अगर सच्चा है, तो लेना-देना सारा आसान हो जायगा । उलझन तो झूठे हिसाब-किताब में आ पड़ती है, जब साईं के दरबार में पहुँचेगा, तो वहाँ कोई तेरा पल्ला नहीं पकड़ेगा , क्योंकि सब… Continue reading सांच का अंग / कबीर
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कथनी-करणी का अंग / कबीर
जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल । पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥1॥ भावार्थ – मुँह से जैसी बात निकले, उसीपर यदि आचरण किया जाय, वैसी ही चाल चली जाय, तो भगवान् तो अपने पास ही खड़ा है, और वह उसी क्षण निहाल कर देगा । पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां… Continue reading कथनी-करणी का अंग / कबीर
माया का अंग / कबीर
`कबीर’ माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि । सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥1॥ भावार्थ – यह पापिन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी है । बहुत सारों पर फंन्दा डाल दिया है इसने ।पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया हरि भक्त पर फंन्दा डालनेवाली माया खुद ही… Continue reading माया का अंग / कबीर
रस का अंग / कबीर
`कबीर’ भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ । सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं – कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं… Continue reading रस का अंग / कबीर
चांणक का अंग / कबीर
इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम । स्वामीं-पणो जो सिरि चढ्यो, सर्यो न एको काम ॥1॥ भावार्थ – इस पेट के लिए दिन-रात साधु का भेष बनाकर वह माँगता फिरा,और स्वामीपना उसके सिर पर चढ़ गया । पर पूरा एक भी काम न हुआ – न तो साधु हुआ और न स्वामी ही… Continue reading चांणक का अंग / कबीर
कामी का अंग / कबीर
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं। दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं॥1॥ भावार्थ – परनारी से जो प्रीति जोड़ते हैं और चोरी की कमाई खाते हैं, भले ही वे चार दिन फूले-फूले फिरें ।किन्तु अन्त में वे जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं। परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि। खूणैं बैसि र खाइए,… Continue reading कामी का अंग / कबीर
पतिव्रता का अंग / कबीर
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर । तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर ॥1॥ भावार्थ – मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं,जो कुछ भी है, वह सब तेरा ही । तब, तेरी ही वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता है, क्या आपत्ति हो सकती है मुझे ? `कबीर’ रेख… Continue reading पतिव्रता का अंग / कबीर
जर्णा का अंग / कबीर
भारी कहौं तो बहु डरौं, हलका कहूं तौ झूठ । मैं का जाणौं राम कूं, नैनूं कबहूँ न दीठ ॥1॥ भावार्थ – अपने राम को मैं यदि भारी कहता हूँ, तो डर लगता है, इसलिए कि कितना भारी है वह । और, उसे हलका कहता हूँ तो यह झूठ होगा । मैं क्या जानूँ उसे… Continue reading जर्णा का अंग / कबीर
विरह का अंग / कबीर
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां । कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ॥1॥ भावार्थ – संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं, अन्तर की कसक दूर होने की नहीं, यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हाँ यह अंदेशा दूर हो सकता है दो तरह से – या तो हरि… Continue reading विरह का अंग / कबीर
सुमिरण का अंग / कबीर
भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार । मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर’ सुमिरण सार ॥1॥ भावार्थ – हरि का नाम-स्मरण ही भक्ति है और वही भजन सच्चा है ; भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं केवल दिखावा है, और अपार दुःख की हेतु भी । पर स्मरण वह होना चाहिए मन से, बचन से… Continue reading सुमिरण का अंग / कबीर