अबोध / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

प्यार करने वाले अबोध भेड़ शावकों की तरह होते हैं कसाई की गोद में भी चढ़ जाते हैं और आदत से मजबूर बेचारे भेडिये की थूथन से भी नाक सटाकर प्यार सूंघने लगते हैं….

लडकियाँ / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

कुछ चीजें कभी समझ नहीं आतीं जैसे कि लड़कियों को सिर्फ वही लड़के क्यों बहुत भाते हैं जो उनसे बहुत दूर चले जाते हैं जैसे कि लडकियां अकेले में ही इतना सुरीला क्यों गातीं हैं और क्यों नाचती हैं भरी दुपहरियों में बंद कमरे में जादूभरा नाच जैसे कि लडकियां काजल और चश्मों के पीछे… Continue reading लडकियाँ / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

स्थगित जीवन / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

साँसों में चढ़ता उतरता है पल पल महज़ एक शून्य, कदम लड़खड़ाते घिसटते चलते हैं बाढ़ में डूबे एक अदृश्य पथ पर, लगता है कि जैसे किसी असावधान पल में आकाश का विराट अकेलापन ही पी गए, और पता नहीं क्यों, एक अच्छे जीवन की चाह में इतना लम्बा स्थगित जीवन जी गए..

सवाल यह नहीं था… / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

सवाल प्यार करने या न करने का नहीं था दोस्त सवाल किसी हाँ या न का भी नहीं था सवाल तो यह था कि उन आखों में हरियाली क्यूँ नहीं थी और क्यूँ नहीं थी वहां खामोश पत्थरों की जगह एक बुडावदार झील? सवाल मिलने या न मिलने का नहीं था दोस्त सवाल ख़ुशी और… Continue reading सवाल यह नहीं था… / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

एक पैसे में… / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

सुबह बहुत उदास थी और मेरे भाड़े के कमरे में धूप के तंतु ओढ़े दूर तक पसर आई थी कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था दरवाज़े के बाहर की चिड़िया भी रेलिंग पर हिलती डुलती खामोश बैठी थी और हवा का संवादहीन शोर एक निरर्थक सायरन की तरह बज रहा था जबकि मैं… Continue reading एक पैसे में… / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

तुम हो… / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

तुम एक सुन्दर बियावान जंगल हो जिसके ख़ूब भीतर रहना चाहता हूँ मैं.. एक आदिम मनुष्य की तरह नग्न.. भग्न.. अकेला..

अप्रैल-फूल / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

सिर्फ़ तुम्हारी बदौलत भर गया था अप्रैल विराट उजाले से हो रही थी बरसात अप्रैल की एक ख़ूबसूरत सुबह में चाँद के चेहरे पर नहीं थी थकावट रातों के सिलसिले में एक इन्द्रधनुष टँग गया था अप्रैल की शाम में एक सूखे दरख़्त की फुनगी में मंदिर की घंटियाँ गिरजे की कैंडल्स और मस्जिद की… Continue reading अप्रैल-फूल / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

लड़नेवाले लोग / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

हर दौर में कुछ ऐसे लोग होते रहे जो लोगों की आँखों में आँच फूँकने की कला में माहिर थे ऐसे लोग हर युग में नियंता बने और उन लोगों के माथों पर असंतोष की लकीरें खींचते रहे जिनके चेहरे पर एक चिर अभावग्रस्त उदासी थी उन चंद लोगों ने उन अधिकाँश लोगों की सेनाएँ… Continue reading लड़नेवाले लोग / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

मुखौटे / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

उस समय में जब दुनिया में चारों तरफ़ मुखौटों की भर्त्सना की जा रही थी हर घर की दीवारों पर टँगे मुखौटे बहुत उदास थे क्योंकि सिर्फ़ वे जानते थे कि वे बिलकुल भी ग़लत नहीं थे कि उनके पीछे कोई चाक़ू कोई हथियार नहीं छुपे थे बल्कि उन्होंने तो दी थी कईयों को जीवित… Continue reading मुखौटे / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

मोक्ष / घनश्याम कुमार ‘देवांश’

कुछ चीज़ें चाहीं ज़िन्दगी में हमेशा पूरी की पूरी जो कभी पूरी न हो सकीं जैसे दो क्षितिजों के बीच नपा-तुला आकाश और कुछ वासनाएँ अतृप्त जो लार बनकर गले के कोटर में उलझतीं रहीं आपस में गुत्थम-गुत्थ मैं रहा निर्वाक, निर्लेप उँगलियों से नहीं बनाया एक भी अधूरा चित्र नहीं लिखी अबूझ क्रमशः के… Continue reading मोक्ष / घनश्याम कुमार ‘देवांश’