कबीर नौबति आपणी, दिन दस लेहु बजाइ। ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥ जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि। एकै हरि के नाँव बिन, गए जन्म सब हारि॥2॥ ढोल दमामा दड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि। औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥3॥ सातो सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग। ते मंदिर… Continue reading चितावणी कौ अंग / साखी / कबीर
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निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर प्रीतडी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत। जे हँसि बोलौं और सौं, तौं नील रँगाउँ दंत॥1॥ नैना अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेउँ। नाँ हौं देखौं और कूं, नाँ तुझ देखन देउँ॥2॥ मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा॥3॥ कबीर रेख स्यंदूर की,… Continue reading निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग / साखी / कबीर
लै कौ अंग / साखी / कबीर
जिहि बन सोह न संचरै, पंषि उड़ै नहिं जाइ। रैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रह्या ल्यो आइ॥1॥ सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार। कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारंबार॥2॥ टिप्पणी: ख-खमन चित। गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट। तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥3॥182॥
हैरान कौ अंग / साखी / कबीर
पंडित सेती कहि रहे, कह्या न मानै कोइ। ओ अगाध एका कहै, भारी अचिरज होइ॥1॥ बसे अपंडी पंड मैं, ता गति लषै न कोइ। कहै कबीरा संत हौ, बड़ा अचम्भा मोहि॥2॥179॥
जर्णा कौ अंग / साखी / कबीर
भारी कहौं त बहु डरौ, हलका कहूँ तो झूठ। मैं का जाँणौं राम कूं, नैनूं कबहुं न दीठ॥1॥ टिप्पणी: क-हलवा कहूँ। दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ। हरि जैसा है तैसा रहौ, तूं हरिषि हरिषि गुण गाइ॥2॥ ऐसा अद्भूत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ बेद कुरानों गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ॥3॥… Continue reading जर्णा कौ अंग / साखी / कबीर
लांबि कौ अंग / साखी / कबीर
कया कमंडल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर। तन मन जोबन भरि पिया, प्यास न मिटी सरीर॥1॥ मन उलट्या दरिया मिल्या, लागा मलि मलि न्हांन। थाहत थाह न आवई, तूँ पूरा रहिमान॥2॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। बूँद समानी समंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥3॥ हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ। समंद समाना… Continue reading लांबि कौ अंग / साखी / कबीर
रस कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर हरि रस यौं पिया बाकी रही न थाकि। पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़हिं चाकि॥1॥ राम रसाइन प्रेम रस पीवत, अधिक रसाल। कबीर पीवण दुलभ है, माँगै सीस कलाल॥2॥ कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ। सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥3॥ हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ… Continue reading रस कौ अंग / साखी / कबीर
परचा कौ अंग / साखी / कबीर
कबीर तेज अनंत का, मानी ऊगी सूरज सेणि। पति संगि जागी सूंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥1॥ कोतिग दीठा देह बिन, मसि बिना उजास। साहिब सेवा मांहि है, बेपरवांही दास॥2॥ पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान। कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्याही परवान॥3॥ अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति। जहाँ कबीरा बंदिगी, ‘तहां’ पाप पुन्य नहीं… Continue reading परचा कौ अंग / साखी / कबीर
ग्यान बिरह कौ अंग / साखी / कबीर
दीपक पावक आंणिया, तेल भी आंण्या संग। तीन्यूं मिलि करि जोइया, (तब) उड़ि उड़ि पड़ैं पतंग॥1॥ मार्या है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि। पड्या पुकारे ब्रिछ तरि, आजि मरै कै काल्हि॥2॥ हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवां प्रगट न होइ। जाके लागी सो लखे, के जिहि लाई सोइ॥3॥ झल उठा झोली जली, खपरा फूटिम फूटि।… Continue reading ग्यान बिरह कौ अंग / साखी / कबीर
बिरह कौ अंग / साखी / कबीर
रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज। कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥1॥ अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल। जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥2॥ चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति। जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥3॥ बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि। कबीर बिछुट्या… Continue reading बिरह कौ अंग / साखी / कबीर