सारग्राही कौ अंग / साखी / कबीर

षीर रूप हरि नाँव है नीर आन ब्यौहार। हंस रूप कोई साध है, तात को जांनणहार॥1॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है- सार संग्रह सूप ज्यूँ, त्यागै फटकि असार। कबीर हरि हरि नाँव ले, पसरै नहीं बिकार॥2॥ कबीर साषत कौ नहीं, सबै बैशनों जाँणि। जा मुख राम न ऊचरै, ताही तन की… Continue reading सारग्राही कौ अंग / साखी / कबीर

मधि कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर मधि अंग जेको रहै, तौ तिरत न लागै बार। दुइ दुइ अंग सूँ लाग करि, डूबत है संसार॥1॥ कबीर दुविधा दूरि करि, एक अंग ह्नै लागि। यहु सीतल वहु तपति है दोऊ कहिये आगि॥2॥ अनल अकाँसाँ घर किया, मधि निरंतर बास। बसुधा ब्यौम बिरकत रहै, बिनठा हर बिसवास॥3॥ बासुरि गमि न रैंणि गमि, नाँ… Continue reading मधि कौ अंग / साखी / कबीर

साध महिमाँ कौ अंग / साखी / कबीर

> चंदन की कुटकी भली, नाँ बँबूर की अबराँउँ। बैश्नों की छपरी भली, नाँ साषत का बड गाउँ॥1॥ टिप्पणी: ख-चंदन की चूरी भली। पुरपाटण सूबस बसै, आनँद ठाये ठाँइ। राँम सनेही बाहिरा, ऊँजड़ मेरे भाँइ॥2॥ जिहिं घरि साथ न पूजिये, हरि की सेवा नाँहिं। ते घर मरड़हट सारषे, भूत बसै तिन माँहि॥3॥ है गै गैंवर… Continue reading साध महिमाँ कौ अंग / साखी / कबीर

साध साषीभूत कौ अंग / साखी / कबीर

निरबैरी निहकाँमता, साँई सेती नेह। विषिया सूँ न्यारा रहै, संतहि का अँग एह॥1॥ संत न छाड़ै संतई, जे कोटिक मिलै असंत। चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत॥2॥ कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत। तन षीणा मन उनमनाँ, जग रूठड़ा फिरंत॥3॥ कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास। रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न… Continue reading साध साषीभूत कौ अंग / साखी / कबीर

साध कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होइ। चंदन होसी बाँवना, नीब न कहसी कोइ॥1॥ कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाइ। दुरमति दूरि गँवाइसी, देसी सुमति बताइ॥2॥ मथुरा जावै द्वारिका, भावैं जावैं जगनाथ। साध संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥3॥ मेरे संगी दोइ जणाँ एक बैष्णों एक राँम। वो है दाता मुकति… Continue reading साध कौ अंग / साखी / कबीर

असाध कौ अंग / साखी / कबीर

कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध। बाहरि दीसै साध गति, माँहैं महा असाध॥1॥ उज्जल देखि न धीजिये, बग ज्यूँ माँड़ै ध्यान। धीरे बैठि चपेटसी, यूँ ले बूड़ै, ग्याँन॥2॥ जेता मीठा बोलणाँ, तेता साध न जाँणि। पहली थाह दिखाई करि, ऊँड़ै देसी आँणि॥3॥480॥ टिप्पणी: ख-तेता भगति न जाँणि।

संगति कौ अंग / साखी / कबीर

देखा देखी पाकड़े, जाइ अपरचे छूटि। बिरला कोई ठाहरे, सतगुर साँमी मूठि॥1॥ देखा देखी भगति है, कदे न चढ़ई रंग। बिपति पढ्या यूँ छाड़सी, ज्यूं कंचुली भवंग॥2॥ करिए तौ करि जाँणिये, सारीपा सूँ संग। लीर लीर लोइ थई, तऊ न छाड़ै रंग॥3॥ यहु मन दीजे तास कौं, सुठि सेवग भल सोइ। सिर ऊपरि आरास है,… Continue reading संगति कौ अंग / साखी / कबीर

कुसंगति कौ अंग / साखी / कबीर

निरमल बूँद अकास की, पड़ि गइ भोमि बिकार। मूल विनंठा माँनबी, बिन संगति भठछार॥1॥ मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥2॥ हरिजन सेती रूसणाँ, संसारी सूँ हेत। ते नर कदे न नीपजै, ज्यूँ कालर का खेत॥3॥ नारी मरूँ कुसंग की, केला काँठै बेरि। वो हालै वो… Continue reading कुसंगति कौ अंग / साखी / कबीर

भेष कौ अंग / साखी / कबीर

कर सेती माला जपै, हिरदै बहै डंडूल। पग तौ पाला मैं गिल्या, भाजण लागी सूल॥1॥ कर पकरै अँगुरी गिनै, मन धावै चहुँ वीर। जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर॥2॥ माला पहरैं मनमुषी, ताथैं कछु न होइ। मन माला कौं फेरताँ, जुग उजियारा सोइ॥3॥ माला पहरे मनमुषी, बहुतैं फिरै अचेत। गाँगी रोले बहि… Continue reading भेष कौ अंग / साखी / कबीर

भ्रम विधौंसण कौ अंग / साखी / कबीर

पांहण केरा पूतला, करि पूजै करतार। इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥1॥ काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट। पांहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट॥2॥ पाँहिन फूँका पूजिए, जे जनम न देई जाब। आँधा नर आसामुषी, यौंही खोवै आब॥3॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं- पाथर ही का देहुरा, पाथर… Continue reading भ्रम विधौंसण कौ अंग / साखी / कबीर