गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव। खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥ भावार्थ – गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।’ `कबीर’ सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।… Continue reading सूरातन का अंग / कबीर
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बेसास का अंग / कबीर
रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥1॥ भावार्थ – क्या रोता फिरता है खाने के लिए ? अपने सरजनहार को पहचान ले न ! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा । भूखा भूखा क्या करैं, कहा… Continue reading बेसास का अंग / कबीर
मधि का अंग / कबीर
`कबीर’दुबिधा दूरि करि,एक अंग ह्वै लागि । यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं — इस दुविधा को तू दूर कर दे – कभी इधर की बात करता है, कभी उधर की । एक ही का हो जा । यह अत्यन्त शीतल है और वह अत्यंत तप्त –… Continue reading मधि का अंग / कबीर
साध का अंग / कबीर
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥ भावार्थ – कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम ।और विषय-वासनाओं में निर्लेपता । संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत । चंदन… Continue reading साध का अंग / कबीर
भेष का अंग / कबीर
माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई । मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥ भावार्थ — लोगों ने यह `मनमुखी’ माला धारण कर रखी है, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं । माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग ? `इधर’ से हटाकर मन को `उधर’ मोड़ दें,… Continue reading भेष का अंग / कबीर
चितावणी का अंग / कबीर
`कबीर’ नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥1॥ भावार्थ – कबीर कहते हैं– अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम । फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने… Continue reading चितावणी का अंग / कबीर
मन का अंग / कबीर
`कबीर’ मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ । बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥1॥ भावार्थ – इस मन को मैं ऐसा मारूँगा कि वह टूक-टूक हो जाय । मन की ही करतूत है यह, जो जीवन की क्यारी में विष के बीज मैंने बो दिये , उन फलों को तब लेना ही… Continue reading मन का अंग / कबीर
संगति का अंग / कबीर
हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत । ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत ॥1॥ भावार्थ – हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना – ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं । मूरख संग न कीजिए, लोहा… Continue reading संगति का अंग / कबीर
साध-असाध का अंग / कबीर
जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि । पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥1॥ भावार्थ – उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं । पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं । [सो… Continue reading साध-असाध का अंग / कबीर
भ्रम-बिधोंसवा का अंग / कबीर
जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम । साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम ॥1॥ भावार्थ – जितनी ही आत्माओं को देखता हूँ, उतने ही शालिग्राम दीख रहे हैं । प्रत्यक्ष देव तो मेरे लिए सच्चा साधु है ।पाषाण की मूर्ति पूजने से क्या बनेगा मेरा ? जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास ।… Continue reading भ्रम-बिधोंसवा का अंग / कबीर