छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद तृषित चषनि लाल, कबधौ दिखाय हौ। चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही मुरली अधर धरे लटकत आय हौ। लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्याय, नेह भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ। बिरह जरत जिय जानि, आनि प्रान प्यारे, कृपानिधि, आनंद को धन बरसाय हौ।
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झलकै अति सुन्दर आनन गौर / घनानंद
सवैया झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै। हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है ह्वै। लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै। अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।4।।
लाजनि लपेटि चितवनि / घनानंद
लाजनि लपेटि चितवनि भेद-भाय भरी लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं। छबि को सदन गोरो भाल बदन, रुचिर, रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानी मैं। दसन दमक फैलि हमें मोती माल होति, पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं। आनँद की निधि जगमगति छबीली बाल, अंगनि अनंग-रंग ढुरि मुरि जानि मैं।
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै / घनानंद
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है। वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन, वहै हँसि दैन, हियरा तें न टरति है। वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि, वहै छैलताई न छिनक बिसरति है। आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की, सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।
प्रिया प्रसाद / घनानंद
राधा राधा राधा कहौं । कहि कहि राधा राधा लहौं ॥१॥ राधा जानौं राधा मानौं । मन राधा रस ही मैं सानौं ॥२॥ राधा जीवन राधा प्रान । राधा ही राधा गुनगान ॥३॥ राधा वृन्दावन की रानी । राधा ही मेरी ठकुरानी ॥४॥ राधा व्रज जीवन की ज्यारी । राधा प्राननाथ की प्यारी ॥५॥ राधा… Continue reading प्रिया प्रसाद / घनानंद
तुम कहां हो / घनश्याम चन्द्र गुप्त
तुम कहां हो तुम कहां हो खो गये क्या तुम पराये हो गये क्या तुम तुम्हारी याद में मैंने बहुत आँसू बहाये तुम न आये तुम कहां हो ढूंढती हूँ मैं तुम्हें हर फूल में, हर पात में सौन्दर्य के प्रतिनिधि सुकोमल गात में पर तुम नहीं हो दृष्टिगोचर सांध्यदीपित गेह में तुम खो गये… Continue reading तुम कहां हो / घनश्याम चन्द्र गुप्त
आज दिल के उदास कागज़ पर / घनश्याम चन्द्र गुप्त
आज दिल के उदास कागज़ पर आज दिल के उदास कागज़ पर एक मज़बूर लेखनी स्थिर है एक नुक़्ते पे टिक गई किस्मत कह रही है उदास कागज़ से भाग्य-रेखा नहीं खिंचेगी अब मुस्कुराहट नहीं दिखेगी अब एक चेहरा उभर रहा था जो फिर से कागज़ में डूब जाता है रात-दिन एक ही फसाने से… Continue reading आज दिल के उदास कागज़ पर / घनश्याम चन्द्र गुप्त
भरी बज़्म में मीठी झिड़की / घनश्याम चन्द्र गुप्त
हर दाने पर मोहर लगी है किसने किसका खाया रे फिर भी उसका हक बनता है जिसने इसे उगाया रे अपना सब कुछ देकर उसको हमने दामन फैलाया वो छू दे तो लोग कहेंगे इसने सब कुछ पाया रे एक दरीचा, एक तबस्सुम, एक झलक चिलमन की ओट हुस्ने-ज़ियारत के सदके से सारा जग मुस्काया… Continue reading भरी बज़्म में मीठी झिड़की / घनश्याम चन्द्र गुप्त
मुझे आपसे प्यार नहीं है / घनश्याम चन्द्र गुप्त
मुझे आपसे प्यार नहीं है मुझे आपसे प्यार नहीं है साड़ी छोड़ चढ़ाई तुमने पहले तो कमीज़-सलवार ऐसा लगा छोड़ कर बेलन ली हो हाथों में तलवार इतने पर भी मैंने अपनी छाती पर चट्टान रखी लेकिन पैंट, बीच की बिकिनी, मिनी-स्कर्ट के तीखे वार सह न सका तो गरजा, देवी! मुझको यह स्वीकार नहीं… Continue reading मुझे आपसे प्यार नहीं है / घनश्याम चन्द्र गुप्त
मुझे आपसे प्यार हो गया / घनश्याम चन्द्र गुप्त
मुझे आप से प्यार हो गया मुझे आप से प्यार हो गया एक नहीं, दो बार हो गया पहली बार हुआ था तब जब हमने ली थी चाट-पकौड़ी तुमने मेरे दोने में से आधी पूरी, एक कचौड़ी, एक इमरती, आधा लड्डू, आलू छोड़ समोसा सारा, कुल्फी का कुल्हड़, इकलौता रसगुल्ला औ’ शक्करपारा लेकर जतलाया था… Continue reading मुझे आपसे प्यार हो गया / घनश्याम चन्द्र गुप्त