परिशिष्ट-10 / कबीर

जहँ अनभै तहँ भौ नहीं जहँ भै तहं हरि नाहिं। कह्यौ कबीर बिचारिकै संत सुनहु मन माँहि॥181॥ जोरी किये जुलुम है कहता नाउ हलाल। दफतर लेखा माडिये तब होइगौ कौन हवाल॥182॥ ढूँढत डोले अंध गति अरु चीनत नाहीं अंत। कहि नामा क्यों पाइयै बिन भगतई भगवंत॥183॥ नीचे लोइन कर रहौ जे साजन घट माँहि। सब… Continue reading परिशिष्ट-10 / कबीर

परिशिष्ट-9 / कबीर

कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतैं मीत। जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहिं नीत॥161॥ कबीर सूरज चाद्दद कै उरय भई सब देह। गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह॥162॥ कबीर सोई कुल भलो जा कुल हरि को दासु। जिह कुल दासु न ऊपजे सो कुल ढाकु पलासु॥163॥ कबीर सोई… Continue reading परिशिष्ट-9 / कबीर

परिशिष्ट-8 / कबीर

कबीर संगत साध की दिन दिन दूना हेतु। साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु॥141॥ संत की गैल न छांड़ियै मारगि लागा जाउ। पेखत ही पुन्नीत होइ भेटत जपियै नाउ॥142॥ संतन की झुरिया भली भठी कुसत्ती गाँउ। आगि लगै तिह धोलहरि जिह नाहीं हरि को नाँउ॥143॥ संत मुये क्या रोइयै जो अपने गृह जाय। रोवहु… Continue reading परिशिष्ट-8 / कबीर

परिशिष्ट-7 / कबीर

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु। आदि जगादि सगस भगत ताकौ सब बिश्राम॥121॥ जम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ। एक जु साधु मोहि मिलो तिन लीया अंचल लाइ॥122॥ कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ। पाछै भोग जु भोगवै तिनकी गुड़ लै खाइ॥123॥ रस को गाढ़ो चूसिये गुन को मरिये रोइ। अवमुन… Continue reading परिशिष्ट-7 / कबीर

परिशिष्ट-6 / कबीर

भाँग माछुली सुरापान जो जो प्रानी खाहि। तीरथ बरत नेम किये ते सबै रसातल जांहि॥101॥ भार पराई सिर धरै चलियो चाहै बाट। अपने भारहि ना डरै आगै औघट घाठ॥102॥ कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर। पाछै लागो हरि फिरहिं कहत कबीर कबीर॥103॥ कबीर मन पंखी भयो उड़ि उड़ि दह दिसि जाइ। जो जैसी संगति… Continue reading परिशिष्ट-6 / कबीर

परिशिष्ट-5 / कबीर

देखि देखि जग ढूँढ़िया कहूँ न पाया ठौर। जिन हरि का नाम न चेतिया कहा भुलाने और॥81॥ कबीर धरती साध की तरकस बैसहि गाहि। धरती भार न ब्यापई उनकौ लाहू लाहि॥82॥ कबीर नयनी काठ की क्या दिखलावहि लोइ। हिरदै राम न चेतही इक नयनी क्या होइ॥83॥ जा घर साध न सोवियहि हरि की सेवा नांहि।… Continue reading परिशिष्ट-5 / कबीर

परिशिष्ट-4 / कबीर

कबीर जेते पाप किये राखे तलै दुराइ। परगट भये निदान सब पूछै धर्मराइ॥61॥ जैसी उपजी पेड़ ते जो तैसी निबहै ओड़ि। हीरा किसका बापुरा पुजहिं न रतन करोड़ि॥62॥ जो मैं चितवौ ना करै क्या मेरे चितवे होइ। अपना चितव्या हरि करैं जो मारै चित न होइ॥63॥ जोर किया सो जुलुम है लेइ जवाब खुदाइ। दफतर… Continue reading परिशिष्ट-4 / कबीर

परिशिष्ट-3 / कबीर

कबीर गरबु न कीजियै देही देखि सुरंग। आजु कालि तजि जाहुगे ज्यों कांचुरी भुअंग॥41॥ गहगंच परौं कुटुंब के कंठै रहि गयो राम। आइ परे धर्म राइ के बीचहिं धूमा धाम॥42॥ कबीर गागर जल भरी आजु कालि जैहै फूटि। गुरु जु न चेतहि आपुनो अधमाझली जाहिगे लूटि॥43॥ गुरु लागा तब जानिये मिटै मोह तन ताप। हरष… Continue reading परिशिष्ट-3 / कबीर

परिशिष्ट-2 / कबीर

कबीर कस्तूरी भया भवर भये सब दास। ज्यों ज्यों भगति कबीर की त्यों त्यों राम निवास॥21॥ कागद केरी ओबरी मसु के कर्म कपाट। पाहन बोरी पिरथमी पंडित थाड़ी बाट॥22॥ काम परे हरि सिमिरिये ऐसा सिमरो चित। अमरपुरा बांसा करहु हरि गया बहोरै बित्त॥23॥ काया कजली बन भया मन कुंजर मयमंतु। अंक सुज्ञान रतन्न है खेवट… Continue reading परिशिष्ट-2 / कबीर

परिशिष्ट-1 / कबीर

आठ जाम चौंसठि घरी तुअ निरखत रहै जीव। नीचे लोइन क्यों करौ सब घट देखौ पीउ॥1॥ ऊँच भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ। ताते भली मधूकरी संत संग गुन गाइ॥2॥ अंबर घनहरू छाइया बरिष भरे सर ताल। चातक ज्यों तरसत रहै, तिनकौ कौन हवाल॥3॥ अल्लह की कर बंदगी जिह सिमरत दुख जाइ। दिल महि साँई… Continue reading परिशिष्ट-1 / कबीर