रे जिय निलज्ज लाज तोहि नाहीं। हरि तजि कत काहू के जाही। जाको ठाकुर ऊँचा होई। सो जन पर घर जात न सोही॥ सो साहिब रहिया भरपूरि। सदा संगि नाहीं हरि दूरि॥ कवला चरन सरन है जाके। कहू जन का नाहीं घर ताके। सब कोउ कहै जासु की बाता। जी सम्भ्रथ निज पति है दाता॥… Continue reading परिशिष्ट-20 / कबीर
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परिशिष्ट-19 / कबीर
माई मोहि अवरु न जान्यो आनाँ। सिव सनकादिक जासु गुन गावहि तासु बसहि मेरे प्रानाँ। हिरदै प्रगास ज्ञान गुरु गम्मित गगन मंडल महि ध्यानाँ॥ बिषय रोग भव बंधन भागे मन निज घर सुख जानाँ॥ एक सुमति रति जानि मानि प्रभु दूसर मनहि न आना। चंदन बास भये मन बास न त्यागि घट्यो अभिमानाँ॥ जो जन… Continue reading परिशिष्ट-19 / कबीर
परिशिष्ट-18 / कबीर
प्रहलाद पठाये पठन साल। संगि सखा बहु लिए बाल॥ मोकौ कहा पढ़ावसि आल जाल। मेरी पटिया लिखि देहु श्रीगोपाल॥ नहीं छोड़ौ रे बाबा राम नाम। मेरो और पढ़न स्यो नहीं काम॥ संडै मरकै कह्यौ जाइ। प्रहलाद बुलाये बेगि धाइ॥ तू राम कहन की छोडु बानि। तुझ तुरत छड़ाऊँ मेरो कह्यो मानि॥ मोकौ कहा सतावहु बार… Continue reading परिशिष्ट-18 / कबीर
परिशिष्ट-17 / कबीर
नगन फिरत जो पाइये जोग। बनका मिरग मुकति सब होग॥ क्या नागे क्या बांधे चाम। जब नहिं चीन्हसि आतम राम॥ मूँड़ मुडांए जो सि;ि पाई। मुक्ती भेड़ न गय्या काई॥ बिंदु राख जो तरयै भाई। खुसरै क्यों न परम गति पाई॥ कहु कबीर सुनहु नर भाई। राम नाम बिन किन गति पाई॥121॥ नर मरै नर… Continue reading परिशिष्ट-17 / कबीर
परिशिष्ट-16 / कबीर
ज्यों कपि के कर मुष्टि चरन की लुब्धि न त्यागि दयो। जो जो कर्म किये लालच स्यों ते फिर गरहि परो॥ भगति बिनु बिरथेे जनम गयो। साध संगति भगवान भजन बिन कही न सच्च रह्यो॥ ज्यों उद्यान कुसुम परफुल्लित किनहि न घ्राउ लयो॥ तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हयो॥ या धन जोबन… Continue reading परिशिष्ट-16 / कबीर
परिशिष्ट-15 / कबीर
जाके निगम दूध के ठाटा। समुद बिलोवन की माटा। ताकी होहु बिलोवनहारी। क्यों मिटैगी छाछि तुम्हारी॥ चेरी तू राम न करसि भरतारा। जग जीवन प्रान अधारा॥ तेरे गलहि तौक पग बेरी। तू घर घर रमिए फेरी॥ तू अजहु न चेतसि चेरी। तू जेम बपुरी है हेरी॥ प्रभु करन करावन हारी। क्या चेरी हाथ बिचारी॥ सोई… Continue reading परिशिष्ट-15 / कबीर
परिशिष्ट-14 / कबीर
गर्भ बास महि कुल नहिं जाती। ब्रह्म बिंद ते सब उतपाती॥ कहु रे पंडित बामन कब क होये। बामन कहि कहि जनम मति खोये॥ जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया। तौ आन बाट काहे नहीं आया॥ तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद। हम कत लोहू तुम कत दूध॥ कहु कबीर जो ब्रह्म बिचारै। सो ब्राह्मण कहियत… Continue reading परिशिष्ट-14 / कबीर
परिशिष्ट-13 / कबीर
काया कलालनि लादनि मेलै गुरु का सबद गुड़ कीनु रे। त्रिस्ना काल क्रोध मद मत्सर काटि काटि कसु दीन रे॥ कोई हेरै संत सहज सुख अंतरि जाको जप तप देउ दलाली रे॥ एक बूँद भरि तन मन देवो जोमद देइ कलाली रे॥ भुवन चतुरदस भाठी कीनी ब्रह्म अगिन तन जारी रे॥ मुद्रा मदक सहज धुनि… Continue reading परिशिष्ट-13 / कबीर
परिशिष्ट-12 / कबीर
इन माया जगदीस गुसाई तुमरे चरन बिसारे॥ किंचत प्रीति न उपजै जन को जन कहा करे बेचारे॥ धृग तन धृग धन धृगं इह माया धृग धृग मति बुधि फन्नी॥ इस माया कौ दृढ़ करि राखहु बाँधे आप बचन्नी॥ क्या खेती क्या लेवा देवा परपंच झूठ गुमाना॥ कहि कबीर ते अंत बिगूते आया काल निदाना॥21॥ इसु… Continue reading परिशिष्ट-12 / कबीर
परिशिष्ट-11 / कबीर
अंतरि मैल जे तीरथ न्हावै तिसु बैकुंठ न जाना। लोक पतीणे कछू न होवै नाहीं राम अयाना। पूजहू राम एकु ही देवा साचा नावण गुरु की सेवा। जल के मज्जन जे गति होवै नित नित मेडुक न्हावहि॥ जैसे मेडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि। मनहु कठोर मरै बनारस नरक न बांच्या जाई। हरि… Continue reading परिशिष्ट-11 / कबीर