छीजता जाता है फूलों से पराग भीतर का आलोक ढंक लेता सात आसमान कम होती जाती दुनिया में भरोसे की जगह उदारता एकाएक आंधी के वेग से चली आती घर के अंदर रहने खेल-खेल में टूटते चले गए बचपन के खिलौने से ज्यादा बड़ी नहीं रहती भूल-गलतियां कुम्हलाया हुआ दिन हर रोज दरवाजे पर आकर… Continue reading वृद्ध होना / यतीन्द्र मिश्र
Category: Yatindra Mishra
सूर्य-वसंत / यतीन्द्र मिश्र
सूर्य अगर फूल होता फिर पंखुड़ी होती आग इस तरह हर फूल का होता प्रकाश और हर प्रकाश का अपना रंग ऐसे में जब-जब जीवन में आता वसंत हमें लगता ढेरों सूर्य खिले हैं रंग भरे और नाउम्मीदी की दिशा भी उम्मीद की आग से धधक उठी है एकबारगी।
सन्मति / यतीन्द्र मिश्र
क्या फ़र्क पड़ता है इससे अयोध्या में पद की जगह कोई सबद गाए दूर ननकाना साहब में कोई मतवाला जपुजी छोड़ कव्वाली ले कर जाए फ़र्क तो इस बात से भी नहीं पड़ता हम बाला और मरदाना से पूछ सकें नानक के बोलों पर गुलतराशी करने वाले इकतारा थामे उन दोनों के हाथ अकसर सुर… Continue reading सन्मति / यतीन्द्र मिश्र