जैसे हम हैं वैसे ही रहें, लिये हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें। मुदें पलक, केवल देखें उर में,- सुनें सब कथा परिमल-सुर में, जो चाहें, कहें वे, कहें। वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय देख रहा है जग को निर्भय, दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें।
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
(आ) समझे मनोहारि वरण जो हो सके / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
समझे मनोहारि वरण जो हो सके, उपजे बिना वारि के तिन न ढूह से । सर नहीं सरोरुह, जीवन न देह में, गेह में दधि, दुग्ध; जल नहीं मेह में, रसना अरस, ठिठुर कर मृत्यु में परस, हरि के हुए सरस तुम स्नेह से हँसे । विश्व यह गतिशील अन्यथा नाश को, अथवा पुनर्व्यथा, फिर… Continue reading (आ) समझे मनोहारि वरण जो हो सके / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
(अ) धिक मद, गरजे बदरवा / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
धिक मद, गरजे बदरवा, चमकि बिजुलि डरपावे, सुहावे सघन झर, नरवा कगरवा-कगरवा ।
फिर बेले में कलियाँ आईं/ सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
फिर बेले में कलियाँ आईं । डालों की अलियाँ मुसकाईं । सींचे बिना रहे जो जीते, स्फीत हुए सहसा रस पीते; नस-नस दौड़ गई हैं ख़ुशियाँ नैहर की ललियाँ लहराईं । सावन, कजली, बारहमासे उड़-उड़ कर पूर्वा में भासे; प्राणों के पलटे हैं पासे, पात-पात में साँसें छाईं । आमों की सुगन्ध से खिंच कर… Continue reading फिर बेले में कलियाँ आईं/ सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पत्रोत्कंठित जीवन का विष / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में, अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में । लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर, सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव, ताक रहा है भीष्म शरों… Continue reading पत्रोत्कंठित जीवन का विष / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जय तुम्हारी देख भी ली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जय तुम्हारी देख भी ली रूप की गुण की, रसीली । वृद्ध हूँ मैं, वृद्ध की क्या, साधना की, सिद्धी की क्या, खिल चुका है फूल मेरा, पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली । चढ़ी थी जो आँख मेरी, बज रही थी जहाँ भेरी, वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है । जीर्ण है वह आज तीली । आग… Continue reading जय तुम्हारी देख भी ली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र, माझ मान मेघ मन्द्र । क्षण-क्षण विद्युत प्रकाश, गुरु गर्जन मधुर भास, कुज्झटिका अट्टहास, अन्तर्दृग विनिस्तन्द्र । विश्व अखिल मुकुल-बन्ध जैसे यतिहीन छन्द, सुख की गति और मन्द, भरे एक-एक रन्ध्र ।
अशरण-शरण राम / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अशरण-शरण राम, काम के छवि-धाम । ऋषि-मुनि-मनोहंस, रवि-वंश-अवतंस, कर्मरत निश्शंस, पूरो मनस्काम । जानकी-मनोरम, नायक सुचारुतम, प्राण के समुद्यम, धर्म धारण श्याम ।
भग्न तन, रुग्ण मन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
भग्न तन, रुग्न मन, जीवन विषण्ण वन । क्षीण क्षण-क्षण देह, जीर्ण सज्जित गेह, घिर गए हैं मेह, प्रलय के प्रवर्षण । चलता नहीं हाथ, कोई नहीं साथ, उन्नत, विनत माथ, दो शरण, दोषरण ।
हारता है मेरा मन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
हारता है मेरा मन विश्व के समर में जब कलरव में मौन ज्यों शान्ति के लिए, त्यों ही हार बन रही हूँ प्रिय, गले की तुम्हारी मैं, विभूति की, गन्ध की, तृप्ति की, निशा की । जानती हूँ तुममें ही शेष है दान–मेरा अस्तित्व सब दूसरा प्रभात जब फैलेगा विश्व में कुछ न रह जाएगा… Continue reading हारता है मेरा मन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”