सह जाते हो उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न, हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न, अन्तिम आशा के कानों में स्पन्दित हम – सबके प्राणों में अपने उर की तप्त व्यथाएँ, क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ कह जाते हो और जगत की ओर ताककर दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर, सह जाते हो। कह जातेहो- “यहाँकभी मत… Continue reading दीन / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
Category: Suryakant Tripathi ‘Nirala’
अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं) / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ; मुक्ति की तब युक्ति से मिल खिल गया भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ। खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी, धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा, सफलता की थी लता आशामयी, झूलते थे फूल-भावी सम्पदा। दीन का तो… Continue reading अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं) / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
स्वप्न-स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
आँख लगी थी पल-भर, देखा, नेत्र छलछलाए दो आए आगे किसी अजाने दूर देश से चलकर। मौन भाषा थी उनकी, किन्तु व्यक्त था भाव, एक अव्यक्त प्रभाव छोड़ते थे करुणा का अन्तस्थल में क्षीण, सुकुमार लता के वाताहत मृदु छिन्न पुष्प से दीन। भीतर नग्न रूप था घोर दमन का, बाहर अचल धैर्य था उनके… Continue reading स्वप्न-स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
हताश / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जीवन चिरकालिक क्रन्दन । मेरा अन्तर वज्रकठोर, देना जी भरसक झकझोर, मेरे दुख की गहन अन्ध- तम-निशि न कभी हो भोर, क्या होगी इतनी उज्वलता- इतना वन्दन अभिनन्दन ? हो मेरी प्रार्थना विफल, हृदय-कमल-के जितने दल मुरझायें, जीवन हो म्लान, शून्य सृष्टि में मेरे प्राण प्राप्त करें शून्यता सृष्टि की, मेरा जग हो अन्तर्धान, तब… Continue reading हताश / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
क्षमा-प्रार्थना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
आज बह गई मेरी वह व्याकुल संगीत-हिलोर किस दिगंत की ओर? शिथिल हो गई वेणी मेरी, शिथिल लाज की ग्रन्थि, शिथिल है आज बाहु-दृढ़-बन्धन, शिथिल हो गया है मेरा वह चुम्बन! शिथिल सुमन-सा पड़ा सेज पर अंचल, शिथिल हो गई है वह चितवन चंचल! शिथिल आज है कल का कूजन— पिक की पंचम तान, शिथिल… Continue reading क्षमा-प्रार्थना / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दिल्ली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
क्या यह वही देश है— भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र, चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्माचर्य-दीप्त उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमण्डल में उज्जवल, अधीर और चिरनवीन?— श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने गीता-गीत—सिंहनाद— मर्मवाणी जीवन-संग्राम की— सार्थक समन्वय ज्ञान-कर्म-भक्ति योग का? यह वही देश है परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया… Continue reading दिल्ली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
कहाँ देश है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
’अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’– कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश! मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर, फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर! मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में मैं विहार करता था,– मेरा… Continue reading कहाँ देश है / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
ज्येष्ठ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
(१) ज्येष्ठ! क्रूरता-कर्कशता के ज्येष्ठ! सृष्टि के आदि! वर्ष के उज्जवल प्रथम प्रकाश! अन्त! सृष्टि के जीवन के हे अन्त! विश्व के व्याधि! चराचर दे हे निर्दय त्रास! सृष्टि भर के व्याकुल आह्वान!–अचल विश्वास! देते हैं हम तुम्हें प्रेम-आमन्त्रण, आओ जीवन-शमन, बन्धु, जीवन-धन! (२) घोर-जटा-पिंगल मंगलमय देव! योगि-जन-सिद्ध! धूलि-धूसरित, सदा निष्काम! उग्र! लपट यह लू… Continue reading ज्येष्ठ / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तट पर / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नव वसन्त करता था वन की सैर जब किसी क्षीण-कटि तटिनी के तट तरुणी ने रक्खे थे अपने पैर। नहाने को सरि वह आई थी, साथ वसन्ती रँग की, चुनी हुई, साड़ी लाई थी। काँप रही थी वायु, प्रीति की प्रथम रात की नवागता, पर प्रियतम-कर-पतिता-सी प्रेममयी, पर नीरव अपरिचिता-सी। किरण-बालिकाएँ लहरों से खेल रहीं… Continue reading तट पर / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अनुताप / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी, किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी, जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे, जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे, जहाँ मिलन-शिंजन-मधुगुंजन युवक-युवति-जन मन हरता था, जहाँ मृदुल पथ पथिक-जनों की हृदय खोल सेवा करता था, आज उसी जीवन-वन में घन अन्धकार छाया रहता है,… Continue reading अनुताप / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”